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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - धनप्राप्ति प्रार्थना सूक्त
तेन॑ भू॒तेन॑ ह॒विषा॒यमा प्या॑यतां॒ पुनः॑। जा॒यां याम॑स्मा॒ आवा॑क्षु॒स्तां रसे॑ना॒भि व॑र्धताम् ॥
स्वर सहित पद पाठतेन॑ । भू॒तेन॑ । ह॒विषा॑ । अ॒यम् । आ । प्या॒य॒ता॒म् । पुन॑: । जा॒याम् । याम् । अ॒स्मै॒ । आ॒ऽअवा॑क्षु: । ताम् । रसे॑न । अ॒भि । व॒र्ध॒ता॒म् ॥७८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तेन भूतेन हविषायमा प्यायतां पुनः। जायां यामस्मा आवाक्षुस्तां रसेनाभि वर्धताम् ॥
स्वर रहित पद पाठतेन । भूतेन । हविषा । अयम् । आ । प्यायताम् । पुन: । जायाम् । याम् । अस्मै । आऽअवाक्षु: । ताम् । रसेन । अभि । वर्धताम् ॥७८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 78; मन्त्र » 1
विषय - हविषा रसेन
पदार्थ -
१. (तेन) = उस (भूतेन) = [भू प्रासी] भूति व समृद्धि की कारणभूत (हविषा) = हूयमान यजिय पदार्थों से (अयम्) = यह (पुन:) = फिर (आप्यायताम्) = वृद्धि को प्राप्त करे। गृहपति यज्ञशील हो, यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला हो। इस यज्ञशेष का सेवन अमृत का सेवन है। इससे उसका जीवन बड़ा नीरोग बना रहेगा। २. (याम्) = जिस (जायाम्) = पत्नी को (अस्मै) = इसके लिए (आवाक्षः) = कन्या के माता-पिता आदि प्राप्त कराते हैं, (ताम्) = उस पत्नी को (रसेन अभिवर्धताम्) = प्रेम के द्वारा यह बढ़ानेवाला हो। पत्नी को पति का उचित प्रेम प्रास होता है तो वह सब प्रकार से बढ़ती ही है।
भावार्थ -
एक उत्तम गृहपति यज्ञ के द्वारा यज्ञशेष का सेवन करता हुआ दृाङ्ग बने। पत्नी को यह उचित प्रेम प्राप्त कराता हुआ बढ़ानेवाला हो।
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