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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
सूक्त - अङ्गिरा
देवता - सूर्यः, चन्द्रः
छन्दः - एकावसाना द्विपदा निचृदार्ची
सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
वी॒हि स्वामाहु॑तिं जुषा॒णो मन॑सा॒ स्वाहा॒ मन॑सा॒ यदि॒दं जु॒होमि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवी॒हि । स्वाम् । आऽहु॑तिम् । जु॒षा॒ण: । मन॑सा । स्वाहा॑ । मन॑सा । यत् । इ॒दम् । जु॒होमि॑ ॥८३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वीहि स्वामाहुतिं जुषाणो मनसा स्वाहा मनसा यदिदं जुहोमि ॥
स्वर रहित पद पाठवीहि । स्वाम् । आऽहुतिम् । जुषाण: । मनसा । स्वाहा । मनसा । यत् । इदम् । जुहोमि ॥८३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
विषय - प्रेमपूर्वक यज्ञशेष का सेवन
पदार्थ -
१. हे रुग्णपुरुष! तू (स्वाम् आहुतिम्) = यज्ञशेष के रूप में ली गई अपनी इस भोज्य द्रव्य की आहुति को (मनसा जुषाण:) = मन से प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ (वीहि) = खा। यजशेष का प्रीतिपूर्वक सेवन तुझे नीरोगता प्रदान करेगा। २. (यत् इदं जुहोमि) = यह जो मैं तुझे देता हूँ, उसे तू (मनसा) = मन के साथ-पूरे ध्यान के साथ (स्वाहा) = आहुत करनेवाला बन । तू यज्ञशेष ही खाना। यज्ञ करके बचे हुए को खाना ही अमृतभोजन है।
भावार्थ -
प्रीतिपूर्वक यज्ञशेष का सेवन करने से गण्डमाला आदि रोग उत्पन्न ही नहीं होते। उत्पन्न हुए-हुए भी नष्ट हो जाते हैं। एवं, औषध के साथ पथ्य-सेवन आवश्यक है।
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