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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिरा
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - भुरिग्जगती
सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
यस्या॑स्त आ॒सनि॑ घो॒रे जु॒होम्ये॒षां ब॒द्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय॒ कम्। भूमि॒रिति॑ त्वाभि॒प्रम॑न्वते॒ जना॒ निरृ॑ति॒रिति॑ त्वा॒हं परि॑ वेद स॒र्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑: । ते॒ । आ॒सनि॑ । घो॒रे । जु॒होमि॑ । ए॒षाम् । ब॒ध्दाना॑म् । अ॒व॒ऽसर्ज॑नाय । कम् । भूमि॑: । इति॑ । त्वा॒ । अ॒भि॒ऽप्रम॑न्वते । जना॑: । नि:ऽऋ॑ति: । इति॑। त्वा॒ । अ॒हम् । परि॑ । वे॒द॒। स॒र्वत॑: ॥८४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यास्त आसनि घोरे जुहोम्येषां बद्धानामवसर्जनाय कम्। भूमिरिति त्वाभिप्रमन्वते जना निरृतिरिति त्वाहं परि वेद सर्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्या: । ते । आसनि । घोरे । जुहोमि । एषाम् । बध्दानाम् । अवऽसर्जनाय । कम् । भूमि: । इति । त्वा । अभिऽप्रमन्वते । जना: । नि:ऽऋति: । इति। त्वा । अहम् । परि । वेद। सर्वत: ॥८४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
विषय - निर्ऋति, नकि भूमि
पदार्थ -
१. हे निव्रते [दुराचरण]! (यस्याः) = जिस (ते) = तेरे (घोरे आसनि) = भयंकर मुख में (जूहोमि) = मैं अपने को आहुत कर बैठता हूँ-मेरी सब इन्द्रियाँ विषयों से जकड़ी जाकर मेरे पतन का कारण बनती हैं, (एषाम्) = इन (बद्धानाम्) = विषयों से बद्ध इन्द्रियों के (अवसर्जनाय) = छुड़ाने के लिए (कम्) = उस आनन्दमय प्रभु को [जहोमि] मैं अपना अपर्ण करता हूँ। प्रभु ही मुझे इस निर्ऋति के बन्धन से मुक्त करेंगे। २. हे निते! (जना:) = समान्य लोग (त्वा) = तुझे (भूमिः इति) = [भवन्ति भूतानि यस्याम्] उत्तम निवास स्थान के रूप में (अभिप्रमन्वते) = मानते हैं-समझते हैं, परन्तु (अहम) = मैं (त्वा) = तुझे (सर्वत:) सब दृष्टिकोणों से (निर्ऋति: इति) = दुर्गति के कारणभूत दुराचार के रूप में (परिवेद) = जानता हूँ।
भावार्थ -
इन्द्रियाँ दुराचार का शिकार होकर विषयों से बद्ध हो जाती हैं, प्रभु-स्मरण से हम इन्हें विषयों से मुक्त करें। विषयों को आनन्द का स्थान न मानकर हम इन्हें कष्ट [दुर्गति] का मूल जानें।
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