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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
ए॒वो ष्वस्मन्नि॑रृतेऽने॒हा त्वम॑य॒स्मया॒न्वि चृ॑ता बन्धपा॒शान्। य॒मो मह्यं॒ पुन॒रित्त्वां द॑दाति॒ तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒वो इति॑ । सु । अ॒स्मत् । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । अ॒ने॒हा । त्वम् । अ॒य॒स्मया॑न् । वि । चृ॒त॒ । ब॒न्ध॒ऽपा॒शान् । य॒म: । मह्म॑म् । पुन॑: । इत् । त्वाम् । द॒दा॒ति॒ । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥८४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
एवो ष्वस्मन्निरृतेऽनेहा त्वमयस्मयान्वि चृता बन्धपाशान्। यमो मह्यं पुनरित्त्वां ददाति तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठएवो इति । सु । अस्मत् । नि:ऽऋते । अनेहा । त्वम् । अयस्मयान् । वि । चृत । बन्धऽपाशान् । यम: । मह्मम् । पुन: । इत् । त्वाम् । ददाति । तस्मै । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे ॥८४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
विषय - अयस्मय बन्धपाशों का विभेदन
पदार्थ -
१. हे निर्ऋते-पापदेवते! एव उ-इसप्रकार ही, अर्थात् गतमन्त्र के अनुसार त्यागवृत्ति के होने पर ही त्वम् अनेहा-तू हमारे लिए निष्पाप जीवनवाली होती है। तू अस्मत्-हमसे अयस्मयान्-लोहनिर्मित, अर्थात् अतिदृढ़ बन्धपाशान्-बन्धन-जालों को सुविचूत-सम्यक् छिन्न कर डाल । २. यमः सर्वनियन्ता प्रभु मह्यम्-मेरे लिए पुनः इत्-फिर भी-त्याग के अभाव में त्वां ददाति-तुझे दे देता है। जब हम त्यागवृत्ति को छोड़कर भोग-वृत्ति में चलते हैं तब प्रभु हमें फिर निर्जति में ले जाता है। तस्मै-उस यमाय-सर्वनियन्ता मृत्यवे-मृत्यु प्राप्त करानेवाले प्रभु के लिए नमः अस्तु-हमारा नमस्कार हो। हम प्रभु-स्मरण करते हुए भोगवृत्ति से बचे रहें।
भावार्थ -
त्यागवृत्ति होने पर ऐश्वर्य हमारे लिए निर्ऋति बनकर पापमय जीवन का कारण नहीं बनता। 'यम' का स्मरण हमें पाप से बचाता है।
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