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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - ध्रुवः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राज्ञः संवरण सूक्त
इ॒हैवैधि॒ माप॑ च्योष्ठाः॒ पर्व॑त इ॒वावि॑चाचलत्। इन्द्र॑ इवे॒ह ध्रु॒वस्ति॑ष्ठे॒ह रा॒ष्ट्रमु॑ धारय ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ए॒व । ए॒धि॒ । मा । अप॑ । च्यो॒ष्ठा॒: । पर्व॑त:ऽइव । अवि॑ऽचाचलत् । इन्द्र॑:ऽइव । इ॒ह ।ध्रु॒व: । ति॒ष्ठ॒ । रा॒ष्ट्रम् । ऊं॒ इति॑ । धारय ॥८७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैवैधि माप च्योष्ठाः पर्वत इवाविचाचलत्। इन्द्र इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह राष्ट्रमु धारय ॥
स्वर रहित पद पाठइह । एव । एधि । मा । अप । च्योष्ठा: । पर्वत:ऽइव । अविऽचाचलत् । इन्द्र:ऽइव । इह ।ध्रुव: । तिष्ठ । राष्ट्रम् । ऊं इति । धारय ॥८७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 87; मन्त्र » 2
विषय - मर्यादित जीवनवाला राजा
पदार्थ -
१. (इह एव एधि) = तू सदा इस राज्यसिंहासन पर ही हो। (मा अप च्योष्ठा:) = कभी भी इस राज्य से च्युत मत हो। (पर्वतः इव) = पर्वत की भाँति (अविचाचलत्) = दृढ हो-मार्ग से डाँवाडोल होनेवाला न हो। २. इन्द्र हे जितेन्द्रिय पुरुष! तू (इह एव) = इस राष्ट्र में ही (ध्रुवः तिष्ठ) = ध्रुव होकर रह (उ) = और (राष्ट्रम) = राष्ट्र को (धारय) = धारित कर। राष्ट्र की सब प्रजाओं को अपने-अपने कार्य में धारित कर-('राजा चतुरो वर्णान् स्वधर्म स्थापयेत्') । यही तो राष्ट्र-धारण का सर्वोत्तम प्रकार है।
भावार्थ -
राजा पर्वत की भाँति कर्त्तव्यमर्यादा में स्थित होता हुआ कभी मार्ग से विचलित न हो। वह जितेन्द्रिय बनकर सब राष्ट्र का धारण करे-('जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः')|
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