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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - ध्रुवः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ध्रुवोराजा सूक्त
ध्रु॒वोऽच्यु॑तः॒ प्र मृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्छत्रूय॒तोऽध॑रान्पादयस्व। सर्वा॒ दिशः॒ संम॑नसः स॒ध्रीची॑र्ध्रु॒वाय॑ ते॒ समि॑तिः कल्पतामि॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒व: । अच्यु॑त: । प्र । मृ॒णी॒हि॒ । शत्रू॑न् । श॒त्रु॒ऽय॒त: । अध॑रान् । पा॒द॒य॒स्व॒ । सर्वा॑: । दिश॑: । सम्ऽम॑नस: । स॒ध्रीची॑: । ध्रु॒वाय॑। ते॒ । सम्ऽइ॑ति: : । क॒ल्प॒ता॒म् । इ॒ह ॥८८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवोऽच्युतः प्र मृणीहि शत्रून्छत्रूयतोऽधरान्पादयस्व। सर्वा दिशः संमनसः सध्रीचीर्ध्रुवाय ते समितिः कल्पतामिह ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुव: । अच्युत: । प्र । मृणीहि । शत्रून् । शत्रुऽयत: । अधरान् । पादयस्व । सर्वा: । दिश: । सम्ऽमनस: । सध्रीची: । ध्रुवाय। ते । सम्ऽइति: : । कल्पताम् । इह ॥८८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
विषय - निरुपद्रव राष्ट्र में मिलकर चलनेवाली प्रजाएँ
पदार्थ -
१. हे राजन्। (ध्रुवः) = इस राष्ट्र में स्थिर (अच्युत:) = मार्ग से विचलित न होनेवाला होता हुआ (शत्रुन्) = शत्रुओं को (प्रमृणीहि) = नष्ट कर डाल । (शत्रूयत:) = शत्रु की भाँति आचरण करते हुए अन्य जनों को (अधरान् पादयस्व) = नीचे गिरा दे, पददलित कर दे। २. इसप्रकार शत्रुओं के न रहने पर (सर्वाः दिश:) = सब दिशाएँ-इनमें रहनेवाली प्रजाएँ (संमनसः) = उत्तम मनवाली होती हुई (सधीची:) = मिलकर चलनेवाली हों। प्रजाओं का परस्पर विरोध न हो। (इह) = इस राष्ट्र में (ध्रुवायते) = कर्तव्य-पथ में स्थित तेरे लिए (समितिः कल्पताम्) = राष्ट्रसभा समर्थ हो, सामर्थ्य की जनक हो। यह सभा तुझे ध्रुवता से शासन करने में समर्थ करे।
भावार्थ -
राजा राष्ट्र को शत्रुभय से रहित करे। इस निरुपद्रव राष्ट्र में सब प्रजाएँ प्रेम से मिलकर चलें। राष्ट्रसभा राजा को शासनकार्य में शक्तिसम्पन्न करे।
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