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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 89

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्रीतिसंजनन सूक्त

    इ॒दं यत्प्रे॒ण्यः शिरो॑ द॒त्तं सोमे॑न॒ वृष्ण्य॑म्। ततः॒ परि॒ प्रजा॑तेन॒ हार्दिं॑ ते शोचयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । यत् ।प्रे॒ण्य: । शिर॑: । द॒त्तम् । सोम॑न । वृष्ण्य॑म् । तत॑: । परि॑ । प्रऽजा॑तेन । हार्दि॑म् । ते॒ । शो॒च॒या॒म॒सि॒ ॥८९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं यत्प्रेण्यः शिरो दत्तं सोमेन वृष्ण्यम्। ततः परि प्रजातेन हार्दिं ते शोचयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । यत् ।प्रेण्य: । शिर: । दत्तम् । सोमन । वृष्ण्यम् । तत: । परि । प्रऽजातेन । हार्दिम् । ते । शोचयामसि ॥८९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 89; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १.हे पुरुष! (इदम्) = यह (यत्) = जो (प्रेण्यः) = प्रीणित करनेवाली पत्नी का (शिर:) = सिर (सोमेन) = सकल जगदुत्पादक प्रभु ने (दत्तम्) = तेरे हाथ में दिया है, यह (वृष्ण्यम्) = तुझमें शक्ति का सेचन करनेवाला हो। इस पत्नी के गौरव को बचाना तू अपना धर्म समझे और यह भाव तुझे शक्तिशाली बनाए। २. (ततः) = उस तेरे हाथ में दिये गये सिर से (परिप्रजातेन) = उत्पन्न हुए-हुए स्नेहविशेष से (ते) = तेरे (हार्दिम्) = हन्मध्यवर्ती अन्त:करण को (शोचयामसि) = दीत करते हैं। तुझे पत्नी के प्रति प्रेम हो, उसके यश को रक्षित करना तू अपना कर्त्तव्य समझे और यह कर्तव्यपालन की भावना तेरे अन्त:करण को उज्ज्वल करनेवाली हो-उत्साहयुक्त करनेवाली हो।

    भावार्थ -

    एक पति यह समझे कि प्रभु ने इस पत्नी को मुझे प्रास कराया है, इसकी कीर्ति का रक्षण मेरा कर्तव्य है। यह कर्त्तव्य-भावना उसके हृदय को उत्साहित करे।

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