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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
शो॒चया॑मसि ते॒ हार्दिं॑ शो॒चया॑मसि ते॒ मनः॑। वातं॑ धू॒म इ॑व स॒ध्र्यङ्मामे॒वान्वे॑तु ये॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशो॒चया॑मसि । ते॒ । हार्दि॑म् । शो॒चया॑मसि । ते॒ । मन॑: । वात॑म् । धू॒म:ऽइ॑व । स॒ध्र्य᳡ङ् । माम् । ए॒व । अनु॑ । ए॒तु॒ । ते॒ । मन॑: ॥८९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शोचयामसि ते हार्दिं शोचयामसि ते मनः। वातं धूम इव सध्र्यङ्मामेवान्वेतु ये मनः ॥
स्वर रहित पद पाठशोचयामसि । ते । हार्दिम् । शोचयामसि । ते । मन: । वातम् । धूम:ऽइव । सध्र्यङ् । माम् । एव । अनु । एतु । ते । मन: ॥८९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
विषय - परस्पर अनुकूलता
पदार्थ -
१. पति-पत्नी परस्पर कहते हैं कि (ते हार्दिम) = तेरे हुन्मध्यवर्ति अन्त:करण को (शोचयामसि) = अनुराग के उत्पादन से दीप्त करते हैं। (ते मन:) = तेरी संकल्प-विकल्पात्मक अन्त:करण की वृत्तिविशेष को भी (शोचयामसि) = उज्ज्वल करते हैं। पति-पत्नी का हृदय एक दूसरे के प्रति अनुरागवाला हो, उनका मन एक-दूसरे के प्रति उत्तम संकल्पोंवाला हो। २. (इव) = जैसे (धूम:) = धुंआ (वातम्) = वायु के साथ गतिवाला होता है, इसीप्रकार (ते मन:) = तेरा मन (माम् एव सध्यइ)= मेरे साथ ही गतिवाला होकर (अनु एतु) = अनुकूलता से प्राप्त हो। पति के अनुकूल पत्नी का मन हो, पति का मन पत्नी के अनुकूल हो।
भावार्थ -
पति-पत्नी अपने व्यवहार से एक-दूसरे के हृदय व मन को दीस करनेवाले हों। इनके मन परस्पर अनुकूलता से युक्त हों।
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