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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 90

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - इषुनिष्कासन सूक्त

    यास्ते॑ श॒तं ध॒मन॒योऽङ्गा॒न्यनु॒ विष्ठि॑ताः। तासां॑ ते॒ सर्वा॑सां व॒यं निर्वि॒षाणि॑ ह्वयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । ते॒ । श॒तम् । ध॒मन॑य: । अङ्गा॑नि । अनु॑ । विऽस्थि॑ता: । तासा॑म् । ते॒ । सर्वा॑साम् । व॒यम् । नि: । वि॒षाणि॑ । ह्व॒या॒म॒सि॒ ॥९०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्ते शतं धमनयोऽङ्गान्यनु विष्ठिताः। तासां ते सर्वासां वयं निर्विषाणि ह्वयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । ते । शतम् । धमनय: । अङ्गानि । अनु । विऽस्थिता: । तासाम् । ते । सर्वासाम् । वयम् । नि: । विषाणि । ह्वयामसि ॥९०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 90; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे शूलरोगिन् ! (ते अंगानि अनु) = तेरे हाथ-पैर आदि अङ्गों में (याः शतं धमनय:) = जो सैकड़ों नाड़ियाँ (विष्ठिता:) = विविधरूप में अवस्थित हैं (ते) = तेरी (तासां सर्वासाम्) = उन सब नाडियों की (निर्विषाणि) = पीड़ा को दूर करनेवाले-विष को बाहर कर देनेवाले औषधों को (वयं हृयामसि) = हम सम्पादित करते हैं। विष दूर होते ही दर्द तो दूर हो ही जाएगा।

    भावार्थ -

    धमनियों में विषप्रभाव हो जाने से अङ्ग-प्रत्यङ्ग में पीड़ा आरम्भ हो जाती है। विष को दूर करनेवाले औषध से हम उस पीड़ा को दूर करते हैं।

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