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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 90

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - इषुनिष्कासन सूक्त

    यां ते॑ रु॒द्र इषु॒मास्य॒दङ्गे॑भ्यो॒ हृद॑याय च। इ॒दं ताम॒द्य त्वद्व॒यं विषू॑चीं॒ वि वृ॑हामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । रु॒द्र: । इषु॑म् । आस्य॑त् । अङ्गे॑भ्य: । हृद॑याय: । च॒ । इ॒दम् । ताम् । अ॒द्य । त्वत् । व॒यम् । विषू॑चीम् । वि । वृ॒हा॒म॒सि॒ ॥९०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते रुद्र इषुमास्यदङ्गेभ्यो हृदयाय च। इदं तामद्य त्वद्वयं विषूचीं वि वृहामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । रुद्र: । इषुम् । आस्यत् । अङ्गेभ्य: । हृदयाय: । च । इदम् । ताम् । अद्य । त्वत् । वयम् । विषूचीम् । वि । वृहामसि ॥९०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 90; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (रुद्रः) = [रोदयति] प्रबल आक्रमण के द्वारा रुलानेवाले शत्रु-सेनानी ने (याम् इषुम्) = जिस बाण को (ते) = तेरे (अंगेभ्य:) = अङ्गों के लिए-अंगों की पीड़ा के लिए हृदयाय (च) = और हृदय की पीड़ा के लिए (आस्यत्) = फेंका है, (अद्य) = आज इदम् उसके प्रतीकार के लिए (वयम्) = हम (ताम्) = उस इषु को (त्वत् विषूचीम्) = तुझसे विरुद्ध दिशा में-तुझसे दूर (विवृहामसि) = उत्क्षिप्त करते हैं|

    भावार्थ -

    युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों से घायल शरीर को स्वस्थ करने के लिए शरीर में रह गये बाण आदि को निकाल फेंकने की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है।

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