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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त
हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ पुष्पं॑ दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्ययी॑ । नौ: । अ॒च॒र॒त् । हिर॑ण्यऽबन्धना । दि॒वि । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । पुष्प॑म् । दे॒वा: । कुष्ठ॑म् । अ॒व॒न्व॒त॒ ॥९५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्ययी नौरचरद्धिरण्यबन्धना दिवि। तत्रामृतस्य पुष्पं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्ययी । नौ: । अचरत् । हिरण्यऽबन्धना । दिवि । तत्र । अमृतस्य । पुष्पम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥९५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
विषय - कुष्ठ
पदार्थ -
व्याख्या द्रष्टव्य-५.४.३-४।
१. हे अग्ने-परमात्मन्! आप (ओषधीनाम्) = [ओष: धीयते आस] परिपाक जिनमें धारण किया जाता है, उन सब ओषधियों के (गर्भः असि) = गर्भ हो-गर्भ की भाँति उनमें अवस्थित हो। (उत) = और (हिमवताम्) = शीत स्पर्शवाली अन्य वनस्पतियों को भी (गर्भ:) = गर्भ के समान धारण करनेवाले हो। २. आप वस्तुत: (विश्वस्य) = सारे (भूतस्य) = प्राणिसमूह के व ब्राह्माण्ड के अन्दर (गर्भ:) = गर्भवत् अवस्थित हो। ऐसे आप (मे) = मेरे (इमम्) = इस व्यक्ति को (अगदं कृधि) = नीरोग कीजिए। आप इसके अन्दर भी उसी प्रकार अवस्थित हुए इसे नीरोग करनेवाले होओ।
भावार्थ -
प्रभु आग्नेय व सौम्य पदार्थों में गर्भवत् स्थित हैं। हमारे अन्दर भी स्थित होते हुए प्रभु हमें नीरोग करें।
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