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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त
गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॑ हि॒मव॑तामु॒त। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्ये॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठगर्भ॑: । अ॒सि॒ । ओष॑धीनाम् । गर्भ॑: । हि॒मऽव॑ताम् । उ॒त । गर्भ॑: । विश्व॑स्य । भू॒तस्य॑ । इ॒मम् । मे॒ । अ॒ग॒दम् । कृ॒धि॒ ॥९५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भो अस्योषधीनां गर्भो हिमवतामुत। गर्भो विश्वस्य भूतस्येमं मे अगदं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठगर्भ: । असि । ओषधीनाम् । गर्भ: । हिमऽवताम् । उत । गर्भ: । विश्वस्य । भूतस्य । इमम् । मे । अगदम् । कृधि ॥९५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
विषय - कुष्ठ
पदार्थ -
व्याख्या द्रष्टव्य-५.४.३-४।
१. हे अग्ने-परमात्मन्! आप (ओषधीनाम्) = [ओष: धीयते आस] परिपाक जिनमें धारण किया जाता है, उन सब ओषधियों के (गर्भः असि) = गर्भ हो-गर्भ की भाँति उनमें अवस्थित हो। (उत) = और (हिमवताम्) = शीत स्पर्शवाली अन्य वनस्पतियों को भी (गर्भ:) = गर्भ के समान धारण करनेवाले हो। २. आप वस्तुत: (विश्वस्य) = सारे (भूतस्य) = प्राणिसमूह के व ब्राह्माण्ड के अन्दर (गर्भ:) = गर्भवत् अवस्थित हो। ऐसे आप (मे) = मेरे (इमम्) = इस व्यक्ति को (अगदं कृधि) = नीरोग कीजिए। आप इसके अन्दर भी उसी प्रकार अवस्थित हुए इसे नीरोग करनेवाले होओ।
भावार्थ -
प्रभु आग्नेय व सौम्य पदार्थों में गर्भवत् स्थित हैं। हमारे अन्दर भी स्थित होते हुए प्रभु हमें नीरोग करें।
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