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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - चिकित्सा सूक्त
मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒दथो॑ वरु॒ण्यादु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥
स्वर सहित पद पाठमु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या᳡त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या᳡त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥९६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥
स्वर रहित पद पाठमुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥९६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 96; मन्त्र » 2
विषय - शपथ्य व वरुण्य रोगों से मुक्ति
पदार्थ -
१. ये ओषधियाँ (मा) = मुझे (शपथ्यात् मुञ्चन्तु) = दुर्वचनजनित रोगों से मुक्त करें। सौम्य ओषधियों मन के उद्वेग आदि को दूर करके हमें कटुवचन बोलने से रोकती हैं। राजस् भोजन स्वभावत: कुछ उग्रता का कारण बनते हैं। (अथो) = अब (वरुणयात् उत) = जल के कारण हो जानेवाले रोगों से भी बचाएँ। दूषित जल से कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। २. (अथो) = और (यमस्य पड़वीशात्) = मृत्यु के पाशरूप असाध्य रोगों से भी ये हमें बचाएँ। (विश्वस्मात्) = सब (देवकिल्बिषात्) = इन्द्रिय-सम्बन्धी दोर्षों [रोगों] से भी ये हमें बचानेबाली हों।
भावार्थ -
ओषधियाँ हमें दुर्वचन-जनित रोगों से, जल-सम्बन्धी रोगों से, असाध्यकल्प रोगों से तथा सब इन्द्रिय-दोषों से मुक्त करें।