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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 97/ मन्त्र 1
अ॑भि॒भूर्य॒ज्ञो अ॑भि॒भूर॒ग्निर॑भि॒भूः सोमो॑ अभि॒भूरिन्द्रः॑। अ॒भ्यहं वि॑श्वाः॒ पृत॑ना॒ यथासा॑न्ये॒वा वि॑धेमा॒ग्निहो॑त्रा इ॒दं ह॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽभू: । य॒ज्ञ: । अ॒भि॒:ऽभू: । अ॒ग्नि: । अ॒भि॒ऽभू:। सोम॑: । अ॒भि॒ऽभू: । इन्द्र॑: । अ॒भि । अहम् । विश्वा॑: । पृत॑ना: । यथा॑ । असा॑नि । ए॒व । वि॒धे॒म॒ । अ॒ग्निऽहो॑त्रा: । इ॒दम् । ह॒वि: ॥९७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिभूर्यज्ञो अभिभूरग्निरभिभूः सोमो अभिभूरिन्द्रः। अभ्यहं विश्वाः पृतना यथासान्येवा विधेमाग्निहोत्रा इदं हविः ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽभू: । यज्ञ: । अभि:ऽभू: । अग्नि: । अभिऽभू:। सोम: । अभिऽभू: । इन्द्र: । अभि । अहम् । विश्वा: । पृतना: । यथा । असानि । एव । विधेम । अग्निऽहोत्रा: । इदम् । हवि: ॥९७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 97; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ व विजय
पदार्थ -
१. विजय की कामनावाले हम लोगों से क्रियामण यह (यज्ञः) = यज्ञ (अभिभूः) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाला है। याग का निष्पादक यह (अग्निः) = अग्नि (अभिभूः) = शत्रुओं को अभिभूत करता है। यज्ञ का साधनभूत सोमः यह सोम भी (अभिभूः) = शत्रुओं का अभिभविता है। इस सोम से तर्पित (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष भी (अभिभूः) = शत्रुओं को अभिभूत करता है। यज्ञ से पवित्रता की भावना का विकास होता है, यज्ञाग्नि हमें भी अग्नि-[उत्साह]-वाला बनाती है। यह यज्ञ हमें भोगवृत्ति से ऊपर उठकर सोम [वीर्य] का रक्षण करनेवाला बनाता है। रक्षित सोम इस जितेन्द्रिय पुरुष को सदा विजयी बनाता है। २. (अहम्) = मैं (विश्वाः पृतना:) = सब शत्रु सैन्यों को (यथा) = जिस प्रकार (अभ्यसानि) = अभिभूत करनेवाला बनूं। (एव) = इसप्रकार (अग्रिहोत्रा:) = अग्निहोत्र करनेवाले हम (इदं हविः) = इस हवि को (विधेम) = समर्पित करनेवाले बनें। यज्ञशील बनकर ही तो हम विजयी बनेंगे।
भावार्थ -
यज्ञशील पुरुष का जीवन उत्साह-सम्पन्न होता है। पवित्र जीवनवाला होने से यह सोम का रक्षण करता है। सोमपान करनेवाला यह इन्द्र कभी पराजित नहीं होता।
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