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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 98

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विजयी राजा

    इन्द्रो॑ जयाति॒ न परा॑ जयाता अधिरा॒जो राज॑सु राजयातै। च॒र्कृत्य॒ ईड्यो॒ वन्द्य॑श्चोप॒सद्यो॑ नमस्यो भवे॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । ज॒या॒ति॒ । न । परा॑ । ज॒या॒तै॒ । अ॒धि॒ऽरा॒ज: । राज॑ऽसु । रा॒ज॒या॒तै॒ । च॒र्कृत्य॑: । ईड्य॑: । वन्द्य॑ । च॒ । उ॒प॒ऽसद्य॑: । न॒म॒स्य᳡: । भ॒व॒ । इ॒ह ॥९८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो जयाति न परा जयाता अधिराजो राजसु राजयातै। चर्कृत्य ईड्यो वन्द्यश्चोपसद्यो नमस्यो भवेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । जयाति । न । परा । जयातै । अधिऽराज: । राजऽसु । राजयातै । चर्कृत्य: । ईड्य: । वन्द्य । च । उपऽसद्य: । नमस्य: । भव । इह ॥९८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 98; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (इन्द्रः) = शत्रुओं को विद्रावण करनेवाला जितेन्द्रिय राजा (जयाति) = विजयी होता है, (न पराजयाता) = कभी पराजित नहीं होता। (राजसु अधिराज:) = सब राजाओं में मुख्य होता हुआ यह (राजयातै) = दीप्त होता है। २. वह तू (चर्कत्य:) = शत्रुओं का अतिशयेन छेदन करनेवाला, (ईडयः) = स्तुत्य, (वन्धः) = वन्दनीय (च) = और (उपसद्य:) = सबसे सेवनीय, समीप जाने योग्य व (नमस्य:) = नमस्कार के योग्य (इह) = यहाँ (भव) = हो।

    भावार्थ -

    राजा जितेन्द्रिय होता हुआ शत्रुओं को जीतनेवाला हो। यह शत्रुछेदन करता हुआ आदरणीय होता है। प्रजाओं के लिए यह उपसद्य व नमस्य हो।

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