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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 117/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
आ म॒न्द्रैरि॑न्द्र॒ हरि॑भिर्या॒हि म॒यूर॑रोमभिः। मा त्वा॒ के चि॒द्वि य॑म॒न्विं न पा॒शिनो॑ऽति॒ धन्वे॑व॒ ताँ इ॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । म॒न्द्रै: । इ॒न्द्र॒ । हरि॑ऽभि: । या॒हि । म॒यूर॑रोमऽभि: । मा । त्वा॒ । के । चि॒त् । वि । य॒म॒न् । विम् । न । पा॒शिन॑: । अति॑ । धन्व॑ऽइव । तान् । इ॒हि॒ ॥१२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः। मा त्वा के चिद्वि यमन्विं न पाशिनोऽति धन्वेव ताँ इहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । मन्द्रै: । इन्द्र । हरिऽभि: । याहि । मयूररोमऽभि: । मा । त्वा । के । चित् । वि । यमन् । विम् । न । पाशिन: । अति । धन्वऽइव । तान् । इहि ॥१२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 117; मन्त्र » 1
विषय - विषय-मरुस्थली का लंघन
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्बों से (आयाहि) = हमारे समीप आनेवाला हो। उन इन्द्रियाश्वों से जोकि (मन्द्रौः) = प्रशंसनीय हैं और (मयूररोमभि:) = [मीनाति हिनस्ति इति मयूरः, रु शब्दे रोम] वासनाविध्वंसक शब्दों का उच्चारण करनेवाले हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ गम्भीर ज्ञानवाली होकर प्रशंसनीय हैं तो कर्मेन्द्रियाँ प्रभु के नामों का उच्चारण करती हुई वासनाओं का विनाश करनेवाली हैं। ये इनद्रि याश्व हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं। २. इस जीवन-यात्रा में (त्वा) = तुझे (केचित्) = कोई भी विषय (मा वियमन्) = मत रोकनेवाले हों। तू विषयों से बीच में ही पकड़न लिया जाए, न जैसेकि (विं पाशिना:) = पक्षी को जालहस्त शिकारी पकड़ लेते हैं। विषय व्याध के समान हैं, हम इनके शिकजे में न पड़ जाएँ। (तान्) = उन विषयों को (धन्व इव) = मरुस्थल की तरह (अति इहि) = लांघकर तू हमारे समीप प्राप्त होनेवाला हो। विषय वस्तुत: मरुस्थल हैं, उनमें कोई वास्तविक आनन्द नहीं। उनमें फंसना तो मूढ़ता ही है।
भावार्थ -
हम विषयों में न फंसते हुए प्रभु की ओर आगे बढ़नेवाले हों।
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