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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 118/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - चन्द्रमाः, वरुणः, देवगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वर्मधारण सूक्त
मर्मा॑णि ते॒ वर्म॑णा छादयामि॒ सोम॑स्त्वा॒ राजा॒मृते॒नानु॑ वस्ताम्। उ॒रोर्वरी॑यो॒ वरु॑णस्ते कृणोतु॒ जय॑न्तं॒ त्वानु॑ दे॒वा म॑दन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठमर्मा॑णि । ते॒ । वर्म॑णा । छा॒द॒या॒मि॒ । सोम॑: । त्वा॒ । राजा॑ । अ॒मृते॑न । अनु॑ । व॒स्ता॒म् । उ॒रो: । वरी॑य: । वरु॑ण: । ते॒ । कृ॒णो॒तु॒ । जय॑न्तम् । त्वा॒ । अनु॑ । दे॒वा: । म॒द॒न्तु॒ ॥१२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम्। उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठमर्माणि । ते । वर्मणा । छादयामि । सोम: । त्वा । राजा । अमृतेन । अनु । वस्ताम् । उरो: । वरीय: । वरुण: । ते । कृणोतु । जयन्तम् । त्वा । अनु । देवा: । मदन्तु ॥१२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 118; मन्त्र » 1
विषय - वर्म, सोम, वरुण
पदार्थ -
१. जिन स्थानों पर बिद्ध होकर मनुष्य शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है, उन्हें मर्म कहते हैं। (ते मर्माणि) = तेरे मर्मस्थलों को (वर्मणा छादयामि) = कवच के द्वारा आच्छादित करता हूँ। कवच से आछादित मर्मस्थल शत्रुओं से शीर्ण नहीं किये जाते। अब (राजा) = जीवन को दीप्त करनेवाला (सोम:) = सोम [वीर्य] (त्वा) = तुझे (अमृतेन अनुवस्ताम्) = नीरोगता से आच्छादित करे, अर्थात् सोम का रक्षण तुझे नीरोग बनाए। २. (वरुण:) = द्वेष निवारण की देवता (ते) = तेरे लिए (उरो: वरीयः) = विशाल से भी विशालतर सुख (कृणोतु) = करे । (जयन्तम्) = राग-द्वेषादि सब शत्रुओं को पराजित करते हुए (स्वा) = तुझे (देवा:) = सब देव, सब दिव्यभाव, (अनुमदन्त) = अनुकूलता से हर्षित करनेवाले हों।
भावार्थ -
ज्ञानरूप कवच हमारे मर्मों का रक्षण करे। सुरक्षित सोम हमें नीरोगता प्रदान करे और निषता की देवता हमें आनन्दित करनेवाली हो।
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