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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - सविता छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - द्रविणार्थप्रार्थना सूक्त

    धा॒ता विश्वा॒ वार्या॑ दधातु प्र॒जाका॑माय दा॒शुषे॑ दुरो॒णे। तस्मै॑ दे॒वा अ॒मृतं॒ सं व्य॑यन्तु॒ विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धा॒ता । विश्वा॑ । वार्या॑ । द॒धा॒तु॒ । प्र॒जाऽका॑माय । दा॒शुषे॑ । दु॒रो॒णे । तस्मै॑ । दे॒वा: । अ॒मृत॑म् । सम् । व्य॒य॒न्तु॒ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अदि॑ति: । स॒ऽजोषा॑: ॥१८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धाता विश्वा वार्या दधातु प्रजाकामाय दाशुषे दुरोणे। तस्मै देवा अमृतं सं व्ययन्तु विश्वे देवा अदितिः सजोषाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धाता । विश्वा । वार्या । दधातु । प्रजाऽकामाय । दाशुषे । दुरोणे । तस्मै । देवा: । अमृतम् । सम् । व्ययन्तु । विश्वे । देवा: । अदिति: । सऽजोषा: ॥१८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (धाता) = सबका धारक (देव:) = दिव्यगुणयुक्त, प्रकाशमय प्रभु इस (प्रजाकामाय) = उत्तम सन्तानों की कामनावाले, (दाशुषे) = हवि देनेवाले यज्ञशील पुरुष के लिए (दुरोणे) = गृह में (विश्वा) = सब (वार्या) = बरणीय बस्तुओं को (दधातु) = धारण करे। सन्तानों के निर्माण के लिए किन्ही आवश्यक साधनों की इसे कमी न रहे। २. (तस्मै) = उस प्रजाकाम दाश्वान् के लिए (देवा:) = वायु, जल आदि देव (अमृतम्) = नीरोगता को (संव्ययन्तु) = संवृत करें, प्राप्त कराएँ [संवृण्वन्तु-प्रयच्छन्तु] । (विश्वे) = सब (देवा:) =  माता-पिता, आचार्य, अतिथि' आदि देव तथा (अदिति:) = यह अदीना देवमाता वेदवाणी (सजोषा:) = समानरूप से प्रीयमाण होते हुए-प्रसन्न होते हुए इसे अमृतत्व [विषयों के पीछे न मरने की वृत्ति को] प्राप्त करानेवाले हों।

    भावार्थ -

    घर में हमें आवश्यक साधनों की कमी न हो, हम सन्तानों का उत्तम निर्माण कर सकें। जल, वायु आदि देवों की अनुकूलता हमें नीरोगता प्राप्त कराए तथा माता-पिता, आचार्य आदि का सम्पर्क और वेदाध्ययन हमें विषयासक्ति से बचाये।

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