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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगुः
देवता - सविता
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - द्रविणार्थप्रार्थना सूक्त
धा॒ता द॑धातु दा॒शुषे॒ प्राचीं॑ जी॒वातु॒मक्षि॑ताम्। व॒यं दे॒वस्य॑ धीमहि सुम॒तिं वि॒श्वरा॑धसः ॥
स्वर सहित पद पाठधा॒ता । द॒धा॒तु॒ । दा॒शुषे॑ । प्राची॑म् । जी॒वातु॑म् । अक्षि॑ताम् । व॒यम् । दे॒वस्य॑ । धी॒म॒हि॒ । सु॒ऽम॒तिम् । वि॒श्वऽरा॑धस: ॥१८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
धाता दधातु दाशुषे प्राचीं जीवातुमक्षिताम्। वयं देवस्य धीमहि सुमतिं विश्वराधसः ॥
स्वर रहित पद पाठधाता । दधातु । दाशुषे । प्राचीम् । जीवातुम् । अक्षिताम् । वयम् । देवस्य । धीमहि । सुऽमतिम् । विश्वऽराधस: ॥१८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
विषय - सुमति
पदार्थ -
१. (धाता) = सबका विधारक देव, (दाशुषे) = हवि देनेवाले यजमान के लिए (प्राचीम्) = प्रकृष्ट गमनवाली, उत्तम मार्ग पर ले-चलनेवाली, (जीवातुम्) = जीवनकारिणी, जीवन की औषधभूत (अक्षिताम्) = अनुपक्षीण, क्षीण न होने देनेवाली सम्पत्ति को (दधातु) = हमारे लिए धारण करे। २. (वयम्) = हम (विश्वराधस:) = सब कार्यों को सिद्ध करनेवाले (देवस्य) = प्रकाशमय प्रभु की (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (धीमहि) = धारण करते हैं।
भावार्थ -
गतमन्त्र से यहाँ प्रथम पाद में 'रयिम्' शब्द का अनुवर्तन है। प्रभु हमें सम्पत्ति दें, जोकि हमारी अग्रगति की साधक हों, जीवन की रक्षक हों तथा हमें क्षीण न होने दें। साथ ही हम प्रभु की सुमति का भी धारण करे, ताकि यह सम्पत्ति हमें विलास की और न ले जाए।
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