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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
सूक्त - भृगुः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - द्रविणार्थप्रार्थना सूक्त
धा॒ता रा॒तिः स॑वि॒तेदं जु॑षन्तां प्र॒जाप॑तिर्नि॒धिप॑तिर्नो अ॒ग्निः। त्वष्टा॒ विष्णुः॑ प्र॒जया॑ संररा॒णो यज॑मानाय॒ द्रवि॑णं दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठधा॒ता । रा॒ति: । स॒वि॒ता । इ॒दम् । जु॒ष॒न्ता॒म् । प्र॒जाऽप॑ति: । नि॒धिऽप॑ति: । न॒: । अ॒ग्नि: । त्वष्टा॑ । विष्णु॑: । प्र॒ऽजया॑ । स॒म्ऽर॒रा॒ण । यज॑मानाय । द्रवि॑णम् । द॒धा॒तु॒ ॥१८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
धाता रातिः सवितेदं जुषन्तां प्रजापतिर्निधिपतिर्नो अग्निः। त्वष्टा विष्णुः प्रजया संरराणो यजमानाय द्रविणं दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठधाता । राति: । सविता । इदम् । जुषन्ताम् । प्रजाऽपति: । निधिऽपति: । न: । अग्नि: । त्वष्टा । विष्णु: । प्रऽजया । सम्ऽरराण । यजमानाय । द्रविणम् । दधातु ॥१८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
विषय - यज्ञमय जीवन तथा यज्ञ का साधनभूत धन
पदार्थ -
१.(धाता) = सबका धारक, (राति:) = सब कल्याणों का दाता, (सविता) = सर्वोत्पादक व सर्वप्रेरक, (प्रजापतिः) = प्रजाओं का पालक, (निधिपतिः) = वेदज्ञान का रक्षिता [निधीयन्ते पुरुषार्था येषु] (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (न:) = हमारी (इदं हवि: जुषन्ताम्) = इस हवि का प्रीतिपूर्वक सेवन करें। प्रभुकृपा से हम हविरूप जीवनवाले बनें। २. वह (त्वष्टा) = रूपों का निर्माता (विष्णुः) = सर्वव्यापक प्रभु (प्रजया संरराण:) = हम प्रजाओं के साथ रमण करता हुआ (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (द्रविणम्) = यज्ञ के साधनभूत धन को (दधातु) = धारण करे, दे। परमपिता प्रभु की कृपा से हम प्रजाओं को यज्ञात्मक कर्मों के लिए धन की कमी न रहे।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हम यज्ञमय जीवनवाले बनें और इन यज्ञों के लिए हमें आवश्यक धन की कमी न रहे। इस यज्ञमय जीवन में स्थिरता से चलनेवाला 'अथर्वा अगले सूक्त का ऋषि है। यज्ञों से होनेवाली वृष्टि का इसमें प्रतिपादन है -
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