Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
इन्द्रो॒तिभि॑र्बहु॒लाभि॑र्नो अ॒द्य या॑वच्छ्रे॒ष्ठाभि॑र्मघवन्छूर जिन्व। यो नो॒ द्वेष्ट्यध॑रः॒ सस्प॑दीष्ट॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । ऊ॒तिऽभि॑: । ब॒हुलाभि॑: । न॒: । अ॒द्य । या॒व॒त्ऽश्रे॒ष्ठाभि॑: । म॒घ॒ऽव॒न् । शू॒र॒ । जि॒न्व॒ । य: । न॒: । द्वेष्टि॑ । अध॑र: । स: । प॒दी॒ष्ट॒ । यम् । ऊं॒ इति॑ । द्वि॒ष्म: । तम् । ऊं॒ इति॑ । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रोतिभिर्बहुलाभिर्नो अद्य यावच्छ्रेष्ठाभिर्मघवन्छूर जिन्व। यो नो द्वेष्ट्यधरः सस्पदीष्ट यमु द्विष्मस्तमु प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । ऊतिऽभि: । बहुलाभि: । न: । अद्य । यावत्ऽश्रेष्ठाभि: । मघऽवन् । शूर । जिन्व । य: । न: । द्वेष्टि । अधर: । स: । पदीष्ट । यम् । ऊं इति । द्विष्म: । तम् । ऊं इति । प्राण: । जहातु ॥३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र, शूर, मघवा
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले, (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (न:) = हमें (अद्य) = आज (बहुलाभि:) = बहुत (यावत् श्रेष्ठाभि:) = अतिश्रेष्ठ, अधिक से-अधिक श्रेष्ठ (ऊतिभिः) = रक्षणों द्वारा (जिन्व) = प्रीणित कीजिए। हम आपके रक्षणों से रक्षित होते हुए कभी भी शत्रुओं से आक्रान्त न हों। २. (यः) = जो (न: द्वेष्टि) = हमारे प्रति अप्रीति करता है, (स:) = वह (अधर: पदीष्ट) = अधोमुख होकर गिरे, पराजित हो। (उ) = और (यं द्विष्मः) = जिस एक के प्रति हम सब अप्रीतिवाले होते हैं, (तम्) = उसे (उ) = निश्चय से (प्राणः जहातु) = प्राण छोड़ जाए, वह मृत्यु का शिकार हो।
भावार्थ -
हम उस 'इन्द्र,शूर,मघवा' प्रभु के रक्षण में रक्षित हुए-हुए शत्रुओं से आक्रान्त न हों। जो हम सबके प्रति द्वेष करता है अतएव सबका अप्रिय बनता है, वह अवनत हो व मृत्यु को प्राप्त हो।
'इन्द्र, शर व मघवा' प्रभु का स्मरण करते हुए द्वेषशन्य होकर,सब प्रकार से आगे बढ़ते हुए हम 'ब्रह्मा' बनते हैं। अगले दो सूक्तों का ऋषि यह 'ब्रह्मा' है -
इस भाष्य को एडिट करें