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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
उप॑ प्रि॒यं पनि॑प्नतं॒ युवा॑नमाहुती॒वृध॑म्। अग॑न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नमो॑ दी॒र्घमायुः॑ कृणोतु मे ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्रि॒यम् । पनि॑प्नतम् । युवा॑नम् । आ॒हु॒ति॒ऽवृध॑म् । अग॑न्म । बिभ्र॑त: । नम॑: । दी॒र्घम् । आयु॑: । कृ॒णो॒तु॒ । मे॒ ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम्। अगन्म बिभ्रतो नमो दीर्घमायुः कृणोतु मे ॥
स्वर रहित पद पाठउप । प्रियम् । पनिप्नतम् । युवानम् । आहुतिऽवृधम् । अगन्म । बिभ्रत: । नम: । दीर्घम् । आयु: । कृणोतु । मे ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-स्मरण व दीर्घ जीवन
पदार्थ -
१. (प्रियम्) = सबके इष्ट-प्रीणनकारी, (पनिप्नतम्) = [पन स्तुतौ] स्तूयमान, (युवानम्) = बुराइयों को दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले, (आहुति-वृधम्) = दानों के द्वारा हमारा समन्तात् वर्धन करनेवाले [वर्धयितारं] उस प्रभु के (उप) = समीप (नमः बिभ्रत: अगन्म) = नमन को धारण करते हुए प्राप्त होते हैं। वे प्रभु मे (आयु:) = मेरे आयुष्य को दीर्घ (कृणोतु) = दीर्घ करें।
भावार्थ -
प्रभु सबके प्रिय हैं, स्तुति के योग्य हैं, बुराइयों को हमसे पृथक करनेवाले हैं, दानों के द्वारा हमारा चारों ओर से बर्धन करनेवाले हैं। प्रभु के प्रति नमन वासनाविनाश के द्वारा हमारे दीर्घजीवन को सिद्ध करता है।
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