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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - जातवेदाः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अग्ने॑ जा॒तान्प्र णु॑दा मे स॒पत्ना॒न्प्रत्यजा॑ताञ्जातवेदो नुदस्व। अ॑धस्प॒दं कृ॑णुष्व॒ ये पृ॑त॒न्यवोऽना॑गस॒स्ते व॒यमदि॑तये स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । जा॒तान् । प्र । नु॒द॒ । मे॒ । स॒ऽपत्ना॑न् । प्रति॑ । अजा॑तान् । जा॒तऽवे॒द॒: । नु॒द॒स्व॒ । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । ये । पृ॒त॒न्यव॑: । अना॑गस: । ते । व॒यम्। अदि॑तये । स्या॒म॒ ॥३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने जातान्प्र णुदा मे सपत्नान्प्रत्यजाताञ्जातवेदो नुदस्व। अधस्पदं कृणुष्व ये पृतन्यवोऽनागसस्ते वयमदितये स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । जातान् । प्र । नुद । मे । सऽपत्नान् । प्रति । अजातान् । जातऽवेद: । नुदस्व । अध:ऽपदम् । कृणुष्व । ये । पृतन्यव: । अनागस: । ते । वयम्। अदितये । स्याम ॥३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप मे (जातान्) = मेरे अन्दर प्रादुर्भूत हुए-हुए (सपत्नान्) = शत्रुओं को (प्रणुद) = परे प्रेरित कीजिए। हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (अ-जातान्) = कुछ-कुछ [अ-ईषत्] प्रकट हो रहे-जिनके प्रादुर्भूत होने की सम्भावना हो रही है, उन्हें भी, (प्रतिनुदस्व) = परे धकेल दीजिए। २.(ये पृतन्यव:) = जो हमारे साथ संग्राम की इच्छावाले शत्रु हैं, उन्हें (अधस्पदं कृणुष्व) = हमारे पाँव तले कर दीजिए, हम उन्हें परास्त करनेवाले हों। (ते वयम्) = वे हम अथवा [तव] आपके उपासक हम (अनागस:) = निष्पाप होकर (अदितये स्याम) = स्वास्थ्य के अखण्डन के लिए [अखण्डितत्वाय], अदीनता के लिए तथा अनभिशस्ति [अहिंसन] के लिए हों।

     

    भावार्थ -

    प्रभुस्मरण हमारे प्रादुर्भूत व प्रादुर्भूत होनेवाले सभी शत्रुओं को दूर करें। हमपर आक्रमण करनेवाले सभी शत्रुओं को हम जीतें। निष्पाप होकर हम 'स्वस्थ, अदीन व अहिंसित बनें।

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