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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - जातवेदाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नीनाशन सूक्त

    प्रान्यान्त्स॒पत्ना॒न्त्सह॑सा॒ सह॑स्व॒ प्रत्यजा॑ताञ्जातवेदो नुदस्व। इ॒दं रा॒ष्ट्रं पि॑पृहि॒ सौभ॑गाय॒ विश्व॑ एन॒मनु॑ मदन्तु दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒न्यान् । स॒ऽपत्ना॑न् । सह॑सा । सह॑स्व । प्रति॑ । अजा॑तान् । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । नु॒द॒स्व॒ । इ॒दम् ।रा॒ष्ट्रम् । पि॒पृ॒हि । सौभ॑गाय । विश्वे॑ । ए॒न॒म् । अनु॑ । म॒द॒न्तु॒ । दे॒वा: ॥३६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रान्यान्त्सपत्नान्त्सहसा सहस्व प्रत्यजाताञ्जातवेदो नुदस्व। इदं राष्ट्रं पिपृहि सौभगाय विश्व एनमनु मदन्तु देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अन्यान् । सऽपत्नान् । सहसा । सहस्व । प्रति । अजातान् । जातऽवेद: । नुदस्व । इदम् ।राष्ट्रम् । पिपृहि । सौभगाय । विश्वे । एनम् । अनु । मदन्तु । देवा: ॥३६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 35; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (अन्यान् सपत्नान्) = हमारा प्रातिकूल्य करनेवाले हमसे भिन्न इन शत्रुओं को सहसा (प्र सहस्व) = बल से अभिभूत कीजिए अथवा शीघ्र विनष्ट कीजिए। (अजातान्) = कुछ-कुछ प्रादुर्भूत हो रहे इन शत्रुओं को भी (प्रतिनुदस्व) = परे धकेल दीजिए। २. हे प्रभो! आप (इदं राष्ट्रम्) = हमारे इस राष्ट्र को (सौभगाय पिपृहि) = सौभाग्य के लिए पूरित कीजिए। शत्रुशून्य हमारा यह राष्ट्र सौभाग्य-सम्पन्न हो। परोपद्रवकारियों से युक्त राष्ट्र कभी सस्य आदि से अभिवृद्धिवाला नहीं होता। (विश्वेदेवाः) = सब देव (एनम्) = इस शत्रुहनन कर्म के प्रयोक्ता को (अनुमदन्तु) = हर्षित करनेवाले हों।

    भावार्थ -

    प्रभु के अनुग्रह से हमारे शत्रु नष्ट हों। हमारा राष्ट्र सौभाग्यपूर्ण हो। सब देव इस शत्रुहन्ता को हर्षित करनेवाले हों।

     

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