अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - आसुरी वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - केवलपति सूक्त
येना॑ निच॒क्र आ॑सु॒रीन्द्रं॑ दे॒वेभ्य॒स्परि॑। तेना॒ नि कु॑र्वे॒ त्वाम॒हं यथा॒ तेऽसा॑नि॒ सुप्रि॑या ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । नि॒ऽच॒क्रे । आ॒सु॒री । इन्द्र॑म् । दे॒वेभ्य॑: । परि॑ । तेन॑ । नि । कु॒र्वे॒ । त्वाम् । अ॒हम् । यथा॑ । ते॒ । असा॑नि । सुऽप्रि॑या ॥३९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येना निचक्र आसुरीन्द्रं देवेभ्यस्परि। तेना नि कुर्वे त्वामहं यथा तेऽसानि सुप्रिया ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । निऽचक्रे । आसुरी । इन्द्रम् । देवेभ्य: । परि । तेन । नि । कुर्वे । त्वाम् । अहम् । यथा । ते । असानि । सुऽप्रिया ॥३९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
विषय - आसुरी
पदार्थ -
१. पत्नी कहती है कि (आसुरी) = प्राणशक्ति ने (येन) = जिस उपाय से (इन्द्रम्) = एक जितेन्द्रिय पुरुष को (देवेभ्यः परि) = दिव्य गणों के लिए सब ओर से (निचक्रे) = निश्चय से समर्थ किया, (तेन) = उसी उपाय से (त्वाम्) = तुझे (अहं निकुर्वे) = मैं अपने लिए निश्चय से प्राप्त करती हूँ, (यथा) = जिससे मैं (ते सुप्रिया असानि) = तेरी सुप्रिया हो।
भावार्थ -
प्राणसाधना द्वारा निर्दोष जीवनवाला बनकर 'इन्द्र' जितेन्द्रिय पुरुष दिव्य गुणों को धारण करता है। इसी प्रकार प्राणसाधना से स्वस्थ व निर्मल मनवाली पत्नी पति के लिए प्रिय बनती है।
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