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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - आसुरी वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - केवलपति सूक्त

    यदि॒ वासि॑ तिरोज॒नं यदि॑ वा न॒द्यस्तिरः। इ॒यं ह॒ मह्यं॒ त्वामोष॑धिर्ब॒द्ध्वेव॒ न्यान॑यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। वा॒ । असि॑ । ति॒र॒:ऽज॒नम् । यदि॑ । वा॒ । न॒द्य᳡: । ति॒र: । इ॒यम् । ह॒ । मह्य॑म्। त्वाम् । ओष॑धि: । ब॒ध्द्वाऽइ॑व । नि॒ऽआन॑यत् ॥३९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि वासि तिरोजनं यदि वा नद्यस्तिरः। इयं ह मह्यं त्वामोषधिर्बद्ध्वेव न्यानयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। वा । असि । तिर:ऽजनम् । यदि । वा । नद्य: । तिर: । इयम् । ह । मह्यम्। त्वाम् । ओषधि: । बध्द्वाऽइव । निऽआनयत् ॥३९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. पत्नी कहती है कि हे पते! (यदि वा) = चाहे आप तिरोजनं असि-लोगों से तिरोहित प्रदेश में कहीं हैं, (यदि वा) = अथवा (नद्यः तिर:) = निमगा नदियाँ [आवयोर्व्यवधायिकाः] हममें व्यवधान करनेवाली हैं तो भी (ह) = निश्चय से (इयं ओषधिः) = यह ('प्रेतो मुञ्चतु मा पते: स्वाहा') = इन शब्दों में की गई प्रतिज्ञारूप ओषधि (त्वाम्) = आपको बध्वा (इव) = मानो बाँधकर (महा नि आनयत्) = मरे लिए निरन्तर प्राप्त करानेवाली हो। मेरी यह प्रतिज्ञा आपको मेरे प्रति प्रीतिवाला बनाए।

    भावार्थ -

    पत्नी की पातिव्रत्य की प्रतिज्ञा पति को पत्नी के प्रति प्रेमोन्मुख करनेवाली होती गत मन्त्रों में वर्णित प्रकार से वर्तनवाले पति-पली ही बुद्धिमान हैं। वे 'प्रस्कण्व'-मेधावी हैं। अगले सात सूक्तों का ऋषि यह 'प्रस्कण्व' ही है।

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