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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - सुपर्णः, वृषभः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपः सूक्त
दि॒व्यं सु॑प॒र्णं प॑य॒सं बृ॒हन्त॑म॒पां गर्भं॑ वृष॒भमोष॑धीनाम्। अ॑भीप॒तो वृ॒ष्ट्या त॒र्पय॑न्त॒मा नो॑ गो॒ष्ठे र॑यि॒ष्ठां स्था॑पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व्यम् । सु॒ऽप॒र्णम् । प॒य॒सम् । बृ॒हन्त॑म् । अ॒पाम् । गर्भ॑म् । वृ॒ष॒भम् । ओष॑धीनाम् । अ॒भी॒प॒त: । वृ॒ष्ट्या । त॒र्पय॑न्तम् । आ । न॒: । गो॒ऽस्थे । र॒यि॒ऽस्थाम् । स्था॒प॒य॒ति॒ ॥४०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तमपां गर्भं वृषभमोषधीनाम्। अभीपतो वृष्ट्या तर्पयन्तमा नो गोष्ठे रयिष्ठां स्थापयाति ॥
स्वर रहित पद पाठदिव्यम् । सुऽपर्णम् । पयसम् । बृहन्तम् । अपाम् । गर्भम् । वृषभम् । ओषधीनाम् । अभीपत: । वृष्ट्या । तर्पयन्तम् । आ । न: । गोऽस्थे । रयिऽस्थाम् । स्थापयति ॥४०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
विषय - 'दिव्य सुपर्ण' वेदज्ञान
पदार्थ -
१. 'सरस्वती' ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता है। पुल्लिंग में यही भाव 'सरस्वान्' शब्द से व्यक्त हो रहा है। वह सरस्वान् प्रभु [७.४०.१] (नः गोष्ठे) = हमारे इस इन्द्रियों के निवास स्थानभूत देह में [गाव: तिष्ठन्ति अस्मिन्] (रयिष्ठाम्) = ज्ञानेश्वर्य की आधारभूत इस वेदवाणी को (आस्था पयाति) = स्थापित करता है। यह वेदवाणी (दिव्यम्) = प्रकाशमय है, (सुपर्णम्) = ज्ञान के द्वारा हमारा पालन व पूरण करनेवाली है। (पयसम्) = आप्यायन [वर्धन] की साधनभूत, (बृहन्तम्) = बढ़ानेवाली है। यह हमें सब वासनाओं से बचाकर बढ़ी हुई शक्तिवाला करती है। २. यह वेदवाणी (अपां गर्भम्) = सब कमों को अपने अन्दर धारण करनेवाली है, इसमें हमारे सब कर्तव्य-कर्मों का निर्देश हुआ है। (ओषधीनां वृषभम्) = ओषधियों में यह श्रेष्ठ है। सब काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को यह विनष्ट करनेवाली है। (अभीपत:) = [अभीपत्] अपनी ओर आते हुए जनों को (वृष्टया तर्पयन्तम्) = ज्ञानवृष्टि से तृप्त करती हैं।
भावार्थ -
सरस्वान् प्रभु हमारे हदयों में उस ज्ञानप्रकाश को स्थापित करता है जो सब प्रकार से हमारा वर्धन करता है, हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश करता है।
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