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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - आसुरी वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - केवलपति सूक्त

    अ॒हं व॑दामि॒ नेत्त्वं स॒भाया॒मह॒ त्वं वद॑। ममेदस॒स्त्वं केव॑लो॒ नान्यासां॑ की॒र्तया॑श्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । व॒दा॒मि॒ । न । इत् । त्वम् । स॒भाया॑म् । अह॑ । त्वम् । वद॑ । मम॑ । इत् । अस॑: । त्वम् । केव॑ल: । न । अ॒न्यासा॑म् । की॒र्तया॑: । च॒न ॥३९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं वदामि नेत्त्वं सभायामह त्वं वद। ममेदसस्त्वं केवलो नान्यासां कीर्तयाश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । वदामि । न । इत् । त्वम् । सभायाम् । अह । त्वम् । वद । मम । इत् । अस: । त्वम् । केवल: । न । अन्यासाम् । कीर्तया: । चन ॥३९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. एक युवती चाहती है कि घर में वही 'सम्राज्ञी' हो. सभा में पति 'समाट' बने अत: वह कहती है कि हे पते! (अहं वदामि) = घर में मैं ही बोलती हूँ, (त्वं न इत्) = आप यहाँ न बोलिए। (अह सभायां त्वं वद) = सभा में तो आप ही बोलिए। [अह विनिग्रहार्थीयः], अर्थात् जब आप मेरे समीप प्राप्त होते हैं तब मैं ही बोलती हूँ, आप तो मदुक्त का अनुवादमात्र ही करते हैं, मेरे प्रतिकूल कभी नहीं कहते। सभा में आपका स्थान है, मैं सभा में नहीं जाती, वहाँ मैं जाती भी हूँ तो शान्त रहती हूँ। २. इसप्रकार (त्वम्) = आप (मम इत् अस:) = केवल मेरे ही होओ, (अन्यासां न कीर्तयाः चन) = औरों का नाम भी न लीजिए। आपका झुकाव किसी अन्य युवती के प्रति न हो।

    भावार्थ -

    परिवार में यह व्यवस्था हो कि घर में पत्नी, सभा में पति। पति अपनी पत्नी से भिन्न किसी युवती का गुण-कीर्तन करनेवाला न हो।

     

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