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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
सर॑स्वति व्र॒तेषु॑ ते दि॒व्येषु॑ देवि॒ धाम॑सु। जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि ररास्व नः ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वति । व्र॒तेषु॑ । ते॒ । दि॒व्येषु॑ । दे॒वि॒ । धाम॑ऽसु । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । र॒रा॒स्व॒ । न॒: ॥७०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वति व्रतेषु ते दिव्येषु देवि धामसु। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि ररास्व नः ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वति । व्रतेषु । ते । दिव्येषु । देवि । धामऽसु । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । ररास्व । न: ॥७०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
विषय - सरस्वती के व्रतों में
पदार्थ -
१.हे (सरस्वति देवि) = ज्ञान की अधिष्ठातृदेवि! [ज्ञान प्रवाह से, गुरु से शिष्य की ओर चलता है, अत: ज्ञान की अधिष्ठात्री 'सरस्वती' कहलाती है। यह प्रकाशमय होने से 'देवी' है] (ते खतेषु) = तेरे व्रतों में चलते हुए हम लोगों द्वारा (दिव्येषु धामसु) = दिव्य तेजों के निमित्त (आहुतम्) = पहले अग्निकुण्ड में आहुत किये गये यज्ञावशिष्ट (हव्यं जुषस्व) = हव्य का ही तू प्रीतिपूर्वक ग्रहण कर, अर्थात् तेरे व्रतों में चलते हुए हम यज्ञावशिष्ट हव्यों को ही ग्रहण करनेवाले बनें। तभी हमें 'दिव्य धाम [तेज]' प्राप्त होंगे। २. हे सरस्वति देवि! तू (न:) = हमारे लिए (प्रजा ररास्व) = प्रशस्त सन्तानों को प्रास करा । जहाँ घर में ज्ञानप्रधान वातावरण होगा, वहाँ सन्ताने उत्तम होंगे ही। ज्ञान के साथ व्यसनों का विरोध है।
भावार्थ -
सरस्वती का आराधक यज्ञावशिष्ट हव्य पदार्थों का ही सेवन करता है। इससे उसे दिव्य तेज प्राप्त होता है और घर में सन्तान भी उत्तम होती हैं।
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