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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
शि॒वा नः॒ शंत॑मा भव सुमृडी॒का स॑रस्वति। मा ते॑ युयोम सं॒दृशः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वा । न॒: । शम्ऽत॑मा । भ॒व॒ । सु॒ऽमृ॒डी॒का । स॒र॒स्व॒ति॒ । मा । ते॒ । यु॒यो॒म॒ । स॒म्ऽदृश॑: ॥७१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवा नः शंतमा भव सुमृडीका सरस्वति। मा ते युयोम संदृशः ॥
स्वर रहित पद पाठशिवा । न: । शम्ऽतमा । भव । सुऽमृडीका । सरस्वति । मा । ते । युयोम । सम्ऽदृश: ॥७१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
विषय - शिव, शान्त व शर्मवाले [सुखी]
पदार्थ -
१. हे (सरस्वति) = वर्णपदादिरूपेण प्रसरणवाली वाग्देवते! (शिवा) = कल्याणकारिणी तू (न:) = हमारे लिए (शन्तमा भव) = अतिशयेन रोगों को दूर करनेवाली व शान्ति प्राप्त करानेवाली हो । (सुमृडीका) = अतिशयेन सुख देनेवाली हो। २. हे सरस्वति ! हम (ते संदृश:) = तेरे समीचीन दर्शन से यथार्थ स्वरूप ज्ञान से (मा युयोम) = पृथक् न हों। ज्ञान से पृथक् होना ही अपवित्रता व अशान्ति का कारण बनता है।
भावार्थ -
हम सदा सरस्वती का आराधन करते हुए शिव, शान्त व शर्म-[सुख]-वाले हों।
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