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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - जातवेदाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
व्र॒तेन॒ त्वं व्र॑तपते॒ सम॑क्तो वि॒श्वाहा॑ सु॒मना॑ दीदिही॒ह। तं त्वा॑ व॒यं जा॑तवेदः॒ समि॑द्धं प्र॒जाव॑न्त॒ उप॑ सदेम॒ सर्वे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठव्र॒तेन॑ । त्वम् । व्र॒त॒ऽप॒ते॒ । सम्ऽअ॑क्त: । वि॒श्वाहा॑ । सु॒ऽमना॑: । दी॒दि॒हि॒ । इ॒ह । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । सम्ऽइ॑ध्दम् । प्र॒जाऽव॑न्त: । उप॑ । स॒दे॒म॒ । सर्वे॑ ॥७८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
व्रतेन त्वं व्रतपते समक्तो विश्वाहा सुमना दीदिहीह। तं त्वा वयं जातवेदः समिद्धं प्रजावन्त उप सदेम सर्वे ॥
स्वर रहित पद पाठव्रतेन । त्वम् । व्रतऽपते । सम्ऽअक्त: । विश्वाहा । सुऽमना: । दीदिहि । इह । तम् । त्वा । वयम् । जातऽवेद: । सम्ऽइध्दम् । प्रजाऽवन्त: । उप । सदेम । सर्वे ॥७८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
विषय - व्रतपति प्रभु का मिलकर उपासन
पदार्थ -
१. हे (व्रतपते) = व्रतों के रक्षक प्रभो ! (त्वम्) = आप (व्रतेन समक्त:) = व्रत के द्वारा, पुण्य कर्मों के द्वारा संस्कृत-सम्भावित-सम्यक् इष्ट [पूजित] होते हो। व्रतों द्वारा समक्त हुए-हुए आप (विश्वाहा) = सदा (सुमना:) = शोभन मनवाले-हमारे विषय में अनुग्रहबुद्धियुक्त होते हुए (इह) = यहाँ हमारे घर में (दीदिहि) = दीत होओ। २. हे (जादवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (समिद्धम्) = सम्यक् (दीप्ततं त्या) = उन आपको (प्रजावन्त:) = पुत्रों के समेत सर्वे (वयम्) = हम सब (उपसदेम) = उपासित करें। हम सब मिलकर आपकी उपासना करनेवाले बनें। यह उपासना ही हमें व्रतमय जीवनवाला बनाकर ईया, क्रोध आदि से बचाएगी।
भावार्थ -
पुण्यकर्मों द्वारा हम व्रतपति प्रभु को अपने जीवन में सम्भावित करें। हम मिलकर प्रातः-सायं घर में प्रभु का उपासन करें। यह उपासन हमें ईर्ष्या व क्रोध से दूर रक्खेगा।
ये उपासक अपने को ईर्ष्या, क्रोध आदि से ऊपर उठाते हैं, अत: 'उपरिबभ्रव' कहलाते हैं। गोदुग्ध का सेवन इन्हें ऊपर उठने में सहायक होता है। ये 'उपरिबभ्रवः' ही अगले सूक्त का ऋषि है -
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