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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 78

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 78/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - बन्धमिचन सूक्त

    अ॒स्मै क्ष॒त्राणि॑ धा॒रय॑न्तमग्ने यु॒नज्मि॑ त्वा॒ ब्रह्म॑णा॒ दैव्ये॑न। दी॑दि॒ह्यस्मभ्यं॒ द्रवि॑णे॒ह भ॒द्रं प्रेमं वो॑चो हवि॒र्दां दे॒वता॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । क्ष॒त्राणि॑ । धा॒रय॑न्तम् । अ॒ग्ने॒ । यु॒नज्मि॑ । त्वा॒ । ब्रह्म॑णा । दैव्ये॑न । दी॒दि॒हि । अ॒स्मभ्य॑म् । द्रवि॑णा । इ॒ह । भ॒द्रम् । प्र । इ॒मम् । वो॒च॒: । ह॒वि॒:ऽदाम् । दे॒वता॑सु ॥८३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मै क्षत्राणि धारयन्तमग्ने युनज्मि त्वा ब्रह्मणा दैव्येन। दीदिह्यस्मभ्यं द्रविणेह भद्रं प्रेमं वोचो हविर्दां देवतासु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । क्षत्राणि । धारयन्तम् । अग्ने । युनज्मि । त्वा । ब्रह्मणा । दैव्येन । दीदिहि । अस्मभ्यम् । द्रविणा । इह । भद्रम् । प्र । इमम् । वोच: । हवि:ऽदाम् । देवतासु ॥८३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 78; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (अस्मै) = इस अपने उपासक के लिए (क्षत्राणि धारयन्तम्) = बलों का धारण करनेवाले (त्वा) = आपको, हे (अग्ने) = प्रभो! (दैव्येन ब्रह्मणा) = देव से प्राप्त ज्ञान के द्वारा, प्रभु को प्रास करनेवाले ज्ञान के द्वारा,(युनज्मि) = अपने साथ जोड़ता हूँ। प्रभु हमें बल प्राप्त कराते हैं, हम ज्ञान के द्वारा प्रभु को प्रास करनेवाले बनें। २. हे प्रभो! आप (इह) = इस जीवन में (द्रविणा) = धनों को (भद्रम्) = कल्याण व सुख को (दीदिहि) = दीजिए अथवा हमारे लिए धन आदि को दीस कीजिए। (इमं हविर्दाम्) = इस हवि देनेवाले यज्ञशील पुरुष को (देवतासु प्रवोच:) = देवों के विषय में प्रकृष्ट ज्ञान दीजिए। इन सूर्य आदि देवों का ज्ञान प्राप्त करके हम उनसे उचित लाभ प्राप्त करते हुए उन्नत जीवनवाले बनें|

    भावार्थ -

    प्रभु हमें 'बल , धन , कल्याण व ज्ञान ' प्राप्त कराते हैं| हम ज्ञान प्रभु को प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों|

    प्रभु से बल आदि को प्राप्त करनेवाला अथर्वा प्रार्थना करता है कि-

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