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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 79/ मन्त्र 1
यत्ते॑ दे॒वा अकृ॑ण्वन्भाग॒धेय॒ममा॑वास्ये सं॒वस॑न्तो महि॒त्वा। तेना॑ नो य॒ज्ञं पि॑पृहि विश्ववारे र॒यिं नो॑ धेहि सुभगे सु॒वीर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । दे॒वा: । अकृ॑ण्वन् । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । अमा॑ऽवास्ये । स॒म्ऽवस॑न्त: । म॒हि॒ऽत्वा । तेन॑ । न॒: । य॒ज्ञम् । पि॒पृ॒हि॒। वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒ । र॒यिम् । न॒: । धे॒हि॒ । सु॒ऽभ॒गे॒ । सु॒ऽवीर॑म् ॥८४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते देवा अकृण्वन्भागधेयममावास्ये संवसन्तो महित्वा। तेना नो यज्ञं पिपृहि विश्ववारे रयिं नो धेहि सुभगे सुवीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । देवा: । अकृण्वन् । भागऽधेयम् । अमाऽवास्ये । सम्ऽवसन्त: । महिऽत्वा । तेन । न: । यज्ञम् । पिपृहि। विश्वऽवारे । रयिम् । न: । धेहि । सुऽभगे । सुऽवीरम् ॥८४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 79; मन्त्र » 1
विषय - सूर्य + इन्द्र
पदार्थ -
१. 'अमावस्या' को अमावस्या इसलिए कहते हैं की इसमें सूर्य और चन्द्र साथ-साथ रहते हैं | [अमा+वस्] अमावास्या' को अमावास्या इसलिए कहते हैं कि इसमें सूर्य और चन्द्र साथ-साथ रहते हैं। (अमावस्) 'सूर्य' प्रकाश व तेजस्विता का प्रतीक है 'चन्द्र' आह्लाद व सौम्यता का मानव जीवन में दोनों का समन्वय अभीष्ट है। तेजस्विता व सौम्यता का समन्वय सब दिव्य गुणों की उत्पत्ति का हेतु बनता है। हे (अमावास्ये) = अमावास्ये! (ते महित्वा) = तेरी महिमा से (यत्) = जब (संवसन्तः) = सम्यक् मिलकर रहते हुए (देवा:) = देववृत्ति के व्यक्ति (भागधेयं अकृण्वन्) = हवि का भाग करते हैं, अर्थात् यज्ञशील होते हैं तब हे विश्ववारे सबसे वरने के योग्य (सुभगे) = शोभन- भाग्ययुक्त अमावास्ये! (तेन) = उस हविर्भाग के द्वारा (नः यज्ञं पिपृहि) = हमारे यज्ञ को पूर्ण कर तथा (नः) = हमारे लिए (सुवीरम्) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले (रयिम्) = ऐश्वर्य को (धेहि) = धारण कर ।
भावार्थ -
जिस समय एक घर में रहनेवाले व्यक्ति सूर्य व चन्द्रतत्त्वों का अपने में समन्वय करते हैं, उस समय वे (क) परस्पर मिलकर रहते हैं, (ख) देववृत्ति के बनकर यज्ञशील होते हैं, (ग) वीर सन्तानों व ऐश्वर्यों को प्राप्त करते हैं।
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