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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 79

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 79/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - अमावस्या छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमावस्य सूक्त

    अमा॑वास्ये॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॑ परि॒भूर्ज॑जान। यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अमा॑ऽवास्ये । न । त्वत् । ए॒तानि॑ । अ॒न्य: । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । प॒रि॒ऽभू: । ज॒जा॒न॒ । यत्ऽका॑मा: । ते॒ । जु॒हु॒म: । तत् । न॒: । अ॒स्तु॒ । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम् ॥८४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमावास्ये न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमाऽवास्ये । न । त्वत् । एतानि । अन्य: । विश्वा । रूपाणि । परिऽभू: । जजान । यत्ऽकामा: । ते । जुहुम: । तत् । न: । अस्तु । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम् ॥८४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 79; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (अमावास्ये) = सूर्य और चन्द्र के साथ-साथ निवासवाली प्रवृत्ते! (त्वत् अन्य:) = तुझसे भिन्न अन्य कोई देव (एतानि विश्वा रूपाणि) = इन सब रूप्यमाण भूतों को (परिभूः न जजान) = व्यापन करनेवाला नहीं उत्पन्न हुआ। अमावास्या ही सब रूपों को प्रादुर्भूत करनेवाली होती है। सूर्य और चन्द्र के समन्वय में ही सब उत्पादन निहित है। इनके समन्वय के अभाव में विनाश है। २. हे अमावास्ये! (यत्कामा:) = जिस फल की कामनावाले होते हुए हम (ते जुहुमः) = तेरे लिए हवियाँ देते हैं, (तत् नः अस्तु) = वह फल हमें प्राप्त हो और (वयम्) = हम (रयीणां पतयः स्याम) = धनों के स्वामी बनें, कभी धनों के दास न बन जाएँ।

    भावार्थ -

    सूर्य-चन्द्र का समन्वय ही सब निर्माण का साधन बनता है। इसके समन्वय में ही इष्टसिद्धि है और यह समन्वय ही हमें धनों का स्वामी बनाता है।

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