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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - पौर्णमासी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पूर्णिमा सूक्त
पू॒र्णा प॒श्चादु॒त पू॒र्णा पु॒रस्ता॒दुन्म॑ध्यतः पौ॑र्णमा॒सी जि॑गाय। तस्यां॑ दे॒वैः सं॒वस॑न्तो महि॒त्वा नाक॑स्य पृ॒ष्ठे समि॒षा म॑देम ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्णा । प॒श्चात् । उ॒त । पू॒र्णा । पु॒रस्ता॑त् । उत् । म॒ध्य॒त: । पौ॒र्ण॒ऽमा॒सी । जि॒गा॒य॒ । तस्या॑म् । दे॒वै: । स॒म्ऽवस॑न्त: । म॒हि॒ऽत्वा । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठे । सम् । इ॒षा । म॒दे॒म॒ ॥८५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तादुन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय। तस्यां देवैः संवसन्तो महित्वा नाकस्य पृष्ठे समिषा मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्णा । पश्चात् । उत । पूर्णा । पुरस्तात् । उत् । मध्यत: । पौर्णऽमासी । जिगाय । तस्याम् । देवै: । सम्ऽवसन्त: । महिऽत्वा । नाकस्य । पृष्ठे । सम् । इषा । मदेम ॥८५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 80; मन्त्र » 1
विषय - पौर्णमासी
पदार्थ -
१. पौर्णमासी के दिन चन्द्रमा पूर्ण होता है, इस दिन वह सोलह कलाओं से युक्त होता है। हमें भी सोलह कला-सम्पन्न बनने की प्रेरणा पूर्णिमा से प्राप्त होती है। हम भी 'प्राण, श्रद्धा, पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक व नाम' इन सोलह कलाओं से पूर्ण जीवनवाले बनें । यह (पौर्णमासी) = पूर्णिमा पूर्णचन्द्रोपेता होती हुई (पश्चात् पूर्णा) = पीछे से पूर्ण है, (पुरस्तात् पूर्णा) = आगे से भी पूर्ण है, (उत) = और (मध्यत:) = बीच से भी पूर्ण होती हुई (जिगाय) = विजयी होती है। हम भी पीछे, आगे व मध्य से पूर्ण बने। हमारे एक ओर 'शक्ति' है, दूसरी ओर 'ज्ञान' और इन दोनों के बीच में 'नर्मल्य' है। हमारे शरीर शक्ति-सम्पन्न हों, मस्तिष्क ज्ञानान्वित हों तथा मन नैर्मल्य को लिये हुए हो। २. (तस्याम्) = उस पूर्णिमा में-शक्ति, ज्ञान व नैर्मल्य के समन्वय में, (सं देवैः) = सब दिव्य गुणों के साथ (संवसन्त:) = निवास करते हुए, महित्वा प्रभुपूजन के द्वारा [मह पूजायाम्] (नाकस्य पृष्ठे) = मोक्षलोक में-दुःख से असंभिन्न सुखमय लोक में, (इषा) = प्रभु प्रेरणा के द्वारा (संमदेम) = सम्यक् आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ -
पूर्णिमा से पूर्णता का पाठ पढ़ते हुए हम शक्ति, ज्ञान व नैर्मल्य को अपने में पूरण करें। दिव्यगुणों से युक्त होते हुए हम प्रभु-पूजन के साथ प्रभुप्रेरणा को सुनते हुए सुखमय लोक में आनन्द से रहें।
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