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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 80/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - पौर्णमासी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पूर्णिमा सूक्त
पौ॑र्णमा॒सी प्र॑थ॒मा य॒ज्ञिया॑सी॒दह्नां॒ रात्री॑णामतिशर्व॒रेषु॑। ये त्वां य॒ज्ञैर्य॑ज्ञिये अ॒र्धय॑न्त्य॒मी ते॒ नाके॑ सु॒कृतः॒ प्रवि॑ष्टाः ॥
स्वर सहित पद पाठपौ॒र्ण॒ऽमा॒सी । प्र॒थ॒मा । य॒ज्ञिया॑ । आ॒सी॒त् । अह्ना॑म् । रात्री॑णाम् । अ॒ति॒ऽश॒र्व॒रेषु॑ । ये । त्वाम् । य॒ज्ञै: । य॒ज्ञि॒ये॒ । अ॒र्धय॑न्ति । अ॒मी इति॑ । ते । नाके॑ । सु॒ऽकृत॑:। प्रऽवि॑ष्टा: ॥८५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
पौर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥
स्वर रहित पद पाठपौर्णऽमासी । प्रथमा । यज्ञिया । आसीत् । अह्नाम् । रात्रीणाम् । अतिऽशर्वरेषु । ये । त्वाम् । यज्ञै: । यज्ञिये । अर्धयन्ति । अमी इति । ते । नाके । सुऽकृत:। प्रऽविष्टा: ॥८५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 80; मन्त्र » 4
विषय - पूर्णिमा यजन
पदार्थ -
१. (अह्नाम्) = दिनों तथा (रात्रीणाम् अतिशर्वरेषु) = रात्रियों के प्रबल अन्धकारों में [अतिशयिता शर्वरी येषु], अर्थात् चाहे समृद्धि का प्रकाश हो चाहे असमृद्धि का अन्धकार हो, सदा ही (पौर्णमासी) = पूर्णिमा (प्रथमा यज्ञिया आसीत्) = सर्वप्रथम संगतिकरण योग्य है। मनुष्य को सदा ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने जीवन को सोलह कलाओं से पूर्ण बनाने का प्रयत्न करे। २. हे (यज्ञिये) = पूजनीय व संगतिकरणयोग्य पूर्णिमे! (ये) = जो (त्वाम्) = तुझे (यज्ञैः) = यज्ञों से (अर्धयन्ति) = [ऋधु वृद्धौ] बढ़ाते हैं, अर्थात् यज्ञों को करते हुए अपने जीवन में पूर्णिमा की तरह ही सोलह कलाओं से पूर्ण बनने का प्रयत्न करते हैं, (ते अमी) = वे ये (सकृतः) = पुण्यकर्मा लोग (नाके) = मोक्षलोक में (प्रविष्टा:) = प्रविष्ट होते हैं।
भावार्थ -
हमारे जीवन में चाहे समृद्धि का प्रकाश हो वा असमृद्धि का अन्धकार हो, हमें सदा ही जीवन को सोलह कलाओं से पूर्ण बनाने के लिए यत्नशील होना चाहिए। यही पूर्णिमा का यजन है। यह हमें सुखमय लोक में प्राप्त कराएगा।
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