अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
पू॑र्वाप॒रं च॑रतो मा॒ययै॒तौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्। विश्वा॒न्यो भुव॑ना वि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायसे॒ नवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम् । च॒र॒त॒: । मा॒यया॑ । ए॒तौ । शिशू॒ इति॑ । क्रीड॑न्तौ । परि॑ । या॒त॒: । अ॒र्ण॒वम् । विश्वा॑ । अ॒न्य: । भुव॑ना । वि॒ऽचष्टे॑ । ऋ॒तून् । अ॒न्य: । वि॒ऽदध॑त् । जा॒य॒से॒ । नव॑: ॥८६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वऽअपरम् । चरत: । मायया । एतौ । शिशू इति । क्रीडन्तौ । परि । यात: । अर्णवम् । विश्वा । अन्य: । भुवना । विऽचष्टे । ऋतून् । अन्य: । विऽदधत् । जायसे । नव: ॥८६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 1
विषय - सूर्य और चन्द्र
पदार्थ -
१. प्रथम सूर्य गति करता है, चन्द्र उसके पीछे गतिवाला होता है। इसप्रकार (एतौ) = ये सूर्य और चन्द्र (पूर्वापरम्) = पौर्वापर्य से, आगे-पीछे, (मायया) = प्रभु की माया [निर्माणशक्ति] से प्रेरित हुए-हुए (चरतः) = धुलोक में गतिवाले होते हैं। (तौ) = वे दोनों शिशु की भाँति भ्रमण के कारण (शिशू) = दो बालकों की भाँति (क्रीडन्तौ) = विहरण करते हुए (अर्णवं परियात:) = [अणासि उदकानि अस्मिन् सन्ति इति अर्णवः अन्तरिक्षम्] अन्तरिक्ष में विचरते हैं। २. उन दोनों में (अन्य:) = एक आदित्य (विश्वा भुवना विचष्टे) = सब लोकों को प्रकाशमय करता है और (अन्य:) = दूसरा चन्द्रमा (ऋतून विदधत्) = वसन्तादि ऋतुओं को और तदवयवभूत मासों व अर्धमासों को बनाता हुआ (नवः जायते) = नया-नया उत्पन्न होता है। [चन्द्रमा में कलाओं के हास व वृद्धि के कारण 'नया उत्पन्न होता है। ऐसा कहा गया है]।
भावार्थ -
सूर्य प्रकाश प्राप्त कराता है, चन्द्रमा ऋतुओं का निर्माण करता है। ज्ञानी दोनों में ही प्रभु की अद्भुत महिमा को देखते हैं।
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