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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 81

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त

    यं दे॒वा अं॒शुमा॑प्या॒यय॑न्ति॒ यमक्षि॑त॒मक्षि॑ता भ॒क्षय॑न्ति। तेना॒स्मानिन्द्रो॒ वरु॑णो॒ बृह॒स्पति॒रा प्या॑ययन्तु॒ भुव॑नस्य गो॒पाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । दे॒वा: । अं॒शुम् । आ॒ऽप्या॒यय॑न्ति । यम् । अक्षि॑तम् । अक्षि॑ता: । भ॒क्षय॑न्ति । तेन॑ । अ॒स्मान् । इन्द्र॑: । वरु॑ण: । बृह॒स्पति॑: । आ । प्या॒य॒य॒न्तु॒ । भुव॑नस्य । गो॒पा: ॥८६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं देवा अंशुमाप्याययन्ति यमक्षितमक्षिता भक्षयन्ति। तेनास्मानिन्द्रो वरुणो बृहस्पतिरा प्याययन्तु भुवनस्य गोपाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । देवा: । अंशुम् । आऽप्याययन्ति । यम् । अक्षितम् । अक्षिता: । भक्षयन्ति । तेन । अस्मान् । इन्द्र: । वरुण: । बृहस्पति: । आ । प्याययन्तु । भुवनस्य । गोपा: ॥८६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (यं अंशम्) = जिस प्रकाश-किरण को (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (आप्याययन्ति) = अपने में बढ़ाते हैं (यम् अक्षितम्) = जिस [न क्षितं यस्मात्] न नष्ट होनेवाले सोम [वीर्य] को (अक्षिता:) = [न क्षिताः] वासनाओं से अहिंसित व्यक्ति (भक्षयन्ति) = अपने अन्दर ग्रहण करते हैं, (तेन) = उसी प्रकाश-किरण व वीर्य से (इन्द्रः) = शत्रु-विद्रावक, (वरुण:) = पापनिवारक, (बृहस्पतिः) = सर्वोच्च ज्ञानी, ['इन्द्रः' शब्द ऐश्वर्यशाली का वाचक होता हुआ 'उत्तम वैश्य' का संकेत कर रहा है, 'वरुणः' पाप-निवारक राजा का संकेत करता हुआ उत्तम क्षत्रिय का प्रतिपादक है, बृहस्पतिः' सर्वोच्च ज्ञानी ब्राह्मण का प्रतिपादन कर रहा है। अंशु का आप्यायन व अक्षित का भक्षण ही हमें 'इन्द्र,वरुण व बृहस्पति बनाएगा।''] (भुवनस्य गोपः) = संसार का रक्षक प्रभु (अस्मान् आप्याययन्तु) = हमें आप्यायित करे।

    भावार्थ -

    हम जितेन्द्रिय, निष्पाप, ज्ञानी व रक्षण-कार्य में प्रवृत्त होकर प्रकाश-किरणों व सोम [वीर्य] को अपने में सुरक्षित करें।

    इसप्रकार प्रकाश व सोम को प्राप्त करनेवाला 'शौनक' [शुनं सुखं] अगले सूक्त का ऋषि है -

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