अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
अ॒भ्यर्चत सुष्टु॒तिं गव्य॑मा॒जिम॒स्मासु॑ भ॒द्रा द्रवि॑णानि धत्त। इ॒मं य॒ज्ञं न॑यत दे॒वता॑ नो घृ॒तस्य॒ धारा॒ मधु॑मत्पवन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । अ॒र्च॒त॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । गव्य॑म् । आ॒जिम् । अ॒स्मासु॑ । भ॒द्रा । द्रवि॑णानि । ध॒त्त॒ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । न॒य॒त॒ । दे॒वता॑ । न॒: । घृ॒तस्य॑ । धारा॑: । मधु॑ऽमत् । प॒व॒न्ता॒म् ॥८७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यर्चत सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त। इमं यज्ञं नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । अर्चत । सुऽस्तुतिम् । गव्यम् । आजिम् । अस्मासु । भद्रा । द्रविणानि । धत्त । इमम् । यज्ञम् । नयत । देवता । न: । घृतस्य । धारा: । मधुऽमत् । पवन्ताम् ॥८७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
विषय - 'सुष्टुति गव्य आजि' प्रभु का अर्चन
पदार्थ -
१. हे विद्वानो! (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुतिवाले (गव्यम्) = [गोभ्यो हितम्] इन्द्रियों के लिए हितकर [प्रभु की उपासना होने पर इन्द्रिय-वृत्तियाँ बड़ी सुन्दर बनी रहती हैं], (आजिम्) = [अज गतिक्षेपणयोः] गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाले प्रभु को (अभ्यचर्त) = पूजो और इसप्रकार (अस्मासु) = हममें (भद्रा द्रविणानि धत्त) = कल्याणकर धनों को धारण करो। तथा २. (नः इमं यज्ञम्) = हमारे इस यज्ञ को (देवता नयत) = देवों को प्राप्त कराओ। हम यज्ञ द्वारा देवों का सम्भावन करनेवाले बनें। (घृतस्य धारा:) = ज्ञानदीति की धाराएँ, (मधुमत् पवन्ताम्) = मधुररूप से हमारी ओर बहें।
भावार्थ -
हम प्रभुस्तवन करते हुए इन्द्रियों को शुद्ध बनाएँ, गतिशीलता द्वारा सब बुराइयों को दूर करें। शुभ धनों का संग्रह करें। यज्ञों द्वारा वायु आदि देवों का शोधन करें। हमारे लिए आचार्य मधुरता से ज्ञानधाराओं को प्रवाहित करें।
इस भाष्य को एडिट करें