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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 82

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 82/ मन्त्र 6
    सूक्त - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त

    घृ॒तं ते॑ अग्ने दि॒व्ये स॒धस्थे॑ घृ॒तेन॒ त्वां मनु॑र॒द्या समि॑न्धे। घृ॒तं ते॑ दे॒वीर्न॒प्त्य आ व॑हन्तु घृ॒तं तुभ्यं॑ दुह्रतां॒ गावो॑ अग्ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । दि॒व्ये । स॒धऽस्थे॑ । घृ॒तेन॑ । त्वाम् । मनु॑: । अ॒द्य । सम् । इ॒न्धे॒ । घृ॒तम् । ते॒ । दे॒वी: । न॒प्त्य᳡: । आ । व॒ह॒न्तु॒ । घृ॒तम् । तुभ्य॑म् । दु॒ह्र॒ता॒म् । गाव॑: । अ॒ग्ने॒ ॥८७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतं ते अग्ने दिव्ये सधस्थे घृतेन त्वां मनुरद्या समिन्धे। घृतं ते देवीर्नप्त्य आ वहन्तु घृतं तुभ्यं दुह्रतां गावो अग्ने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम् । ते । अग्ने । दिव्ये । सधऽस्थे । घृतेन । त्वाम् । मनु: । अद्य । सम् । इन्धे । घृतम् । ते । देवी: । नप्त्य: । आ । वहन्तु । घृतम् । तुभ्यम् । दुह्रताम् । गाव: । अग्ने ॥८७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. 'घृ क्षरणदीप्त्योः' से बना 'घृतं' शब्द दीप्ति का वाचक है। हे (अग्ने) = परमात्मन्! (ते घृतम्) = आपकी दीसि (दिव्ये) = दिव्य गुणयुक्त (सधस्थे) = आत्मा व परमात्मा के मिलकर रहने के स्थान 'हृदय' में है। पवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश दिखता है। इस (घृतेन) = ज्ञानदीति से ही (मनु:) = विचारशील व्यक्ति (अद्य) = अब (त्वां समिन्धे) = आपको दीप्त करता है, आपके प्रकाश को देखता है। २. (देवी: नप्त्यः) = दिव्य गुणोंवाली न पतनशील प्रजाएँ (ते घृतम्) = आपकी ज्ञानदीसि को (आवहन्तु) = प्राप्त करें। हे (अग्रे) = परमात्मन्! (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए ये (गावः) = वेदवाणियाँ हमारे अन्दर (घृतम्) = ज्ञानदीसि का (दुहताम्) = प्रपूरण करें।

    भावार्थ -

    पवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश होता है। ज्ञानी मनुष्य ज्ञानदीप्ति द्वारा प्रभु को अपने में समिद्ध करता है। न पतनशील प्रजाएँ आपके प्रकाश को प्राप्त करती हैं, आपकी प्रासि के लिए ये वेदवाणियाँ हमारे अन्दर ज्ञान का प्रपूरण करें।

    ज्ञानदीति प्राप्त करके मनुष्य सब बन्धनों से मुक्त होता हुआ वास्तविक सुख का निर्माण कर पाता है, अतः 'शुन:शेप' सुख का निर्माण करनेवाला होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि -

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