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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 82

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 82/ मन्त्र 4
    सूक्त - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त

    अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒ अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । अनु॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । अनु॑ । सूर्य॑: । उ॒षस॑: । अनु॑ । र॒श्मीन् । अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥८७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः। अनु सूर्य उषसो अनु रश्मीननु द्यावापृथिवी आ विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । अनु । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । अनु । सूर्य: । उषस: । अनु । रश्मीन् । अनु । द्यावापृथिवी इति । आ । विवेश ॥८७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. वह (अग्रि:) = अग्नणी [प्रकाशमान्] प्रभु (उषसाम् अग्नम् अनु अख्यत्) = उषाकालों के भी पूर्वभाग को क्रम से प्रकाशित करता है। वह (प्रथमः) = सर्वत्र विस्तृत (जातवेदा:) = सवर्ड प्रभु ही (अहानि अनु) [अख्यत्] = दिनों को अनुक्रम से प्रकाशित करता है। २. वही प्रभु (सूर्यः अनु) = [सूर्य]-सूर्य को प्रकाशित करता है, (उषसः अनु) = उषाकालों को प्रकाशित करता है, (रश्मीन अनु) = समस्त रश्मियों को [प्रकाशमय पिण्डों को] प्रकाशित करता है। वह प्रभु ही (द्यावापृथिवी आविवेश) = द्युलोक व पृथिवीलोक में सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। वे प्रभु सब पिण्डों व लोकों में अनप्रविष्ट हो रहे हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु ही उषाकालों, दिनों, सूर्य व अन्य ज्योतिर्मय पिण्डों को प्रकाशित कर रहे हैं। वे ही द्यावापृथिवी में सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं।

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