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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - पौर्णमासी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पूर्णिमा सूक्त
वृ॑ष॒भं वा॒जिनं॑ व॒यं पौ॑र्णमा॒सं य॑जामहे। स नो॑ ददा॒त्वक्षि॑तां र॒यिमनु॑पदस्वतीम् ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒ष॒भम् । वा॒जिन॑म् । व॒यम् । पौ॒र्ण॒ऽमा॒सम् । य॒जा॒म॒हे॒ । स: । न॒: । द॒दा॒तु॒ । अक्षि॑ताम् । र॒यिम् । अनु॑पऽदस्वतीम् ॥८५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषभं वाजिनं वयं पौर्णमासं यजामहे। स नो ददात्वक्षितां रयिमनुपदस्वतीम् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषभम् । वाजिनम् । वयम् । पौर्णऽमासम् । यजामहे । स: । न: । ददातु । अक्षिताम् । रयिम् । अनुपऽदस्वतीम् ॥८५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
विषय - 'वृषभ, वाजी, पौर्णमास' प्रभु का पूजन
पदार्थ -
१. (वयम्) = हम (वृषभम) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले, (वाजिनम) = शक्तिशाली (पौर्णमासम) = पौर्णमासी के चन्द्र के समान उस षोडशी प्रभु [प्रजापतिः प्रजया सरराणस्त्रीणि ज्योतीषी सचते स षोडशी-य० ३२॥५] को (यजामहे) = पूजित करते हैं। (सः) = वे प्रभु (न:) = हमारे लिए उस (रयिम्) = सम्पत्ति को (ददातु) = दें, जो (अक्षिताम्) = अविनाशित है-किसी से नष्ट नहीं की जा सकती तथा (अनुपदस्वतीम्) = आवश्यक उपभोगों में व्यय होती हुई भी क्षयरहित है।
भावार्थ -
हम 'वृषभ, वाजी व पौर्णमास' प्रभु का पूजन करें। वे हमें न क्षीण होनेवाली सम्पत्ति प्राप्त कराएँ।
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