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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 90

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुबलनाशन सूक्त

    अपि॑ वृश्च पुराण॒वद्व्र॒तते॑रिव गुष्पि॒तम्। ओजो॑ दा॒स्यस्य॑ दम्भय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपि॑ । वृ॒श्च॒ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् । व्र॒तते॑:ऽइव । गु॒ष्पि॒तम् । ओज॑: । दा॒सस्य॑ । द॒म्भ॒य॒ ॥९५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपि वृश्च पुराणवद्व्रततेरिव गुष्पितम्। ओजो दास्यस्य दम्भय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपि । वृश्च । पुराणऽवत् । व्रतते:ऽइव । गुष्पितम् । ओज: । दासस्य । दम्भय ॥९५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे अग्ने! [प्रभो अथवा राजन्!] (व्रतते:) = किसी बेल की (पुराणवत्) -= पुरानी (गुष्पितम्) = झाड़ झंकाड़-सी बनी हुई सूखी डालियों को जिस प्रकार माली खोज-खोजकर काट डालता है, उसी प्रकार आप (दासस्य) = [दस् उपक्षये] औरों का उपक्षय करनेवालों में सर्वाग्रणी पुरुष को [दासेषु उत्तम: दास्यः] (अपिवृश्च) = छिन्नांग कर डाल, इसप्रकार (ओज: दम्भय) = इसके ओज को विनष्ट कर दे।

    भावार्थ -

    राजा का कर्तव्य है कि राष्ट्र में दुष्ट पुरुषों को इसप्रकार छिन्नांग कर दे जैसेकि माली बेलों की सूखी, पुरानी डालियों को काट डालता है। राजा औरों का उपक्षय करनेवाले के ओज को विनष्ट कर दे।

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