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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - शत्रुबलनाशन सूक्त
यथा॒ शेपो॑ अ॒पाया॑तै स्त्री॒षु चास॒दना॑वयाः। अ॑व॒स्थस्य॑ क्न॒दीव॑तः शाङ्कु॒रस्य॑ नितो॒दिनः॑। यदात॑त॒मव॒ तत्त॑नु॒ यदुत्त॑तं॒ नि तत्त॑नु ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । शेप॑: । अ॒प॒ऽअया॑तै । स्त्री॒षु । च॒ । अस॑त् । अना॑वया: । अ॒व॒स्थस्य॑ । क्न॒दिऽव॑त: । शा॒ङ्कु॒रस्य॑ । नि॒ऽतो॒दिन॑: । यत् । आऽत॑तम् । अव॑ । तत् । त॒नु॒ । यत् । उत्ऽत॑तम् । नि । तत् । त॒नु॒ ॥९५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा शेपो अपायातै स्त्रीषु चासदनावयाः। अवस्थस्य क्नदीवतः शाङ्कुरस्य नितोदिनः। यदाततमव तत्तनु यदुत्ततं नि तत्तनु ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । शेप: । अपऽअयातै । स्त्रीषु । च । असत् । अनावया: । अवस्थस्य । क्नदिऽवत: । शाङ्कुरस्य । निऽतोदिन: । यत् । आऽततम् । अव । तत् । तनु । यत् । उत्ऽततम् । नि । तत् । तनु ॥९५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
विषय - अवस्थ के मान व बल का विनाश
पदार्थ -
१. हे राजन् ! (अवस्थस्य) = [अव-स्थ] इस नीचे दर्जे के, (कदीवतः) = [कद् आह्वाने] गवारों की भाँति लड़ाई के लिए ललकारनेवाले, (शाङ्करस्य) = कील के समान सबके मन में चुभनेवाले, (नितोदिन:) = निश्चय से पीड़ित करनेवाले इस दुष्ट का (यत् आततम्) = जो बल फैला हुआ है (तत् अवतनु) = उसे घटा दो, (यत् उत्ततम्) = जो पद उन्नत अवस्था तक पहुँचा हो (तत्) = उस पद को (नितनु) = नीचा कर दो। दुष्ट की शक्ति व मान का कम करना आवश्यक ही है। २. ऐसा इसलिए कीजिए (यथा) = जिससे इसका (शेपः) = कामवासना सम्बन्धी (मद अपायातै) = दूर हो जाए (च) = और वह दुष्ट (स्त्रीषु) = स्त्रियों में (अनावया: असत्) = न पहुँच सके उन्हें प्रलोभन में फंसाकर उनका मान नष्ट न कर सके। [अनावयाः अनागच्छत्]।
भावार्थ -
राष्ट्र में यदि कोई पुरुष दुष्ट व व्यभिचार की वृत्तिवाला है तो राजा को उसे नष्ट बल व नष्ट-मानवाला कर देना चाहिए ताकि वह बल व मान के रोब से अनाचार न कर सके।
अनाचार से दूर रहनेवाला अथर्वा [न डॉवाडोल होनेवाला] अगले दो सूक्तों का ऋषि है -
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