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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॑ ह॒विषाव॒ सोमं॑ नयामसि। यथा॑ न॒ इन्द्रः॒ केव॑ली॒र्विशः॒ संम॑नस॒स्कर॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वम् । ध्रु॒वेण॑ । ह॒विषा॑ । अव॑ । सोम॑म् । न॒या॒म॒सि॒ । यथा॑ । न॒: । इन्द्र॑: । केव॑ली: । विश॑: । सम्ऽम॑नस: । कर॑त् ॥९९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवं ध्रुवेण हविषाव सोमं नयामसि। यथा न इन्द्रः केवलीर्विशः संमनसस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवम् । ध्रुवेण । हविषा । अव । सोमम् । नयामसि । यथा । न: । इन्द्र: । केवली: । विश: । सम्ऽमनस: । करत् ॥९९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 94; मन्त्र » 1
विषय - केवली: विश:
पदार्थ -
१. ध्(रुवेण हविषा) = स्थिर हवि [कर] के द्वारा पूर्व (सोमम्) = स्थिर सोम-स्वभाववाले राजा को (अवनयामसि) = गाड़ी से आसन्दी के प्रति अवतीर्ण करते हैं, अर्थात् राजा को गद्दी पर बिठाते हैं, और उसके लिए स्थिर रूप से कर देते हैं, तभी तो वह राष्ट्र का रक्षण कर पाता है। बिना कोष के कोई भी कार्य सम्भव नहीं। २. हम इसलिए इन्हें गद्दी पर बिठाते हैं (यथा) = जिससे कि (इन्द्रः) = यह शत्रु-विद्रावक प्रभु (न:) = हमें (केवली संमनसः विश:) = किसी अन्य पर अनाश्रित तथा परस्पर संगत मनवाली प्रजाएँ (करत्) = बनाये।
भावार्थ -
राजा को निश्चितरूप से कर देने से ही राजा राष्ट्र का रक्षण कर पाएगा, अत: प्रजा का कर्तव्य है कि वह निश्चितरूप से राजा के लिए हवि [कर] दे। राजा प्रजा को किसी अन्य देश पर अनाश्रित, आत्मनिर्भर [Self sufficient] तथा हम प्रजाओं को परस्पर उत्तम मनवाला बनाये।
अगले दो सुक्तों का ऋषि 'कपिजल' है-यह [कपि-जल-to encircle with anet] वानर के समान चञ्चलतावाली 'काम-क्रोध' रूप वृत्तियों को घेरकर समाप्त करता है [जल घातने] -
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