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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - गृध्रौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
उद॑स्य श्या॒वौ वि॑थु॒रौ गृध्रौ॒ द्यामि॑व पेततुः। उ॑च्छोचनप्रशोच॒नाव॒स्योच्छोच॑नौ हृ॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒स्य॒ । श्या॒वौ । वि॒थु॒रौ । गृध्रौ॑ । द्यामऽइ॑व । पे॒त॒तु॒: । उ॒च्छो॒च॒न॒ऽप्र॒शो॒च॒नौ । अ॒स्य । उ॒त्ऽशोच॑नौ । हृ॒द: ॥१००.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदस्य श्यावौ विथुरौ गृध्रौ द्यामिव पेततुः। उच्छोचनप्रशोचनावस्योच्छोचनौ हृदः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अस्य । श्यावौ । विथुरौ । गृध्रौ । द्यामऽइव । पेततु: । उच्छोचनऽप्रशोचनौ । अस्य । उत्ऽशोचनौ । हृद: ॥१००.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
विषय - श्यावौ गृध्रौ
पदार्थ -
१. (अस्य) = इस पुरुष के (हदः उच्छोचनौ) = हृदय को उत्कर्षेण शुष्क करनेवाले [शोकान्वित करनेवाले] ये काम-क्रोध (विथुरौ) = इसकी व्यथा को बढ़ानेवाले हैं। ये (श्यावौ) = गतिशील (गृध्रौ इव) = दो गीधों के समान द्(याम् उत्पेततु:) = आकाश में ऊपर उठते हैं। ये काम-क्रोध बढ़ते ही जाते हैं। ये (अस्य) = इस पुरुष के (उच्छोचनप्रशोचनौ) = महान् शोक का कारण बनते हैं और इसे प्रकर्षण सुखानेवाले होते हैं।
भावार्थ -
काम-क्रोध' मनुष्य के प्रबल शत्रु हैं। ये सेवन से बढ़ते ही जाते हैं। ये उसके शोक व व्यथा के बढ़ानेवाले होते हैं।
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