Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - गृध्रौ
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
आ॑तो॒दिनौ॑ नितो॒दिना॒वथो॑ संतो॒दिना॑वु॒त। अपि॑ नह्याम्यस्य॒ मेढ्रं॒ य इ॒तः स्त्री पुमा॑ञ्ज॒भार॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽतो॒दिनौ॑ । नि॒ऽतो॒दिनौ॑ । अथो॒ इति॑ । स॒म्ऽतो॒दिनौ॑ । उ॒त । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒। अ॒स्य॒ । मेढ्र॑म् । य: । इ॒त: । स्त्री । पुमा॑न् । ज॒भार॑ ॥१००.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत। अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इतः स्त्री पुमाञ्जभार ॥
स्वर रहित पद पाठआऽतोदिनौ । निऽतोदिनौ । अथो इति । सम्ऽतोदिनौ । उत । अपि । नह्यामि। अस्य । मेढ्रम् । य: । इत: । स्त्री । पुमान् । जभार ॥१००.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
विषय - आतोदिनौ संतोदिनौ
पदार्थ -
१. ये काम-क्रोध (आतोदिनौ) = सर्वत: व्यथा प्राप्त करानेवाले हैं, (नितोदिनौ) = निश्चय से पीड़ित करनेवाले हैं (उत अथो) = और अब (संतोदिनौ) = मिलकर खुब ही कष्ट देनेवाले हैं। २. इन काम-क्रोध में (य:) = जो भी (इत:) = इधर हृदयदेश में (स्त्री पुमान् जभार) = [स्त्रियं पुमांसं वा] स्त्री या पुरुष को प्रहत करता है [जहार प्रहृतवान्] तो मैं इस काम-क्रोध के (मेड्रम्) = [मिह सेचने] सेचन को (अपि नह्यामि) = बद्ध करता हूँ। काम-क्रोध के सेचन को रोककर ही हम अपनी पीड़ाओं को दूर कर सकते हैं। नियमन किये गये काम-क्रोध पीड़ाकर नहीं होते।
भावार्थ -
उच्छल रूप में काम-क्रोध हमारे हृदय पर आघात करके निश्चय से खुब ही पीड़ा पहुँचाते हैं। इनके सेचन का नियमन आवश्यक है। वशीभूत काम-क्रोध ही ठीक हैं।
इस भाष्य को एडिट करें