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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
अस॑द॒न्गावः॒ सद॒नेऽप॑प्तद्वस॒तिं वयः॑। आ॒स्थाने॒ पर्व॑ता अस्थुः॒ स्थाम्नि॑ वृ॒क्काव॑तिष्ठिपम् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑दन् । गाव॑: । सद॑ने । अप॑प्तत् । व॒स॒तिम् । वय॑: । आ॒ऽस्थाने॑ । पर्व॑ता: । अ॒स्थु॒: । स्थाम्नि॑ । वृ॒क्कौ । अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म् ॥१०१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
असदन्गावः सदनेऽपप्तद्वसतिं वयः। आस्थाने पर्वता अस्थुः स्थाम्नि वृक्कावतिष्ठिपम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसदन् । गाव: । सदने । अपप्तत् । वसतिम् । वय: । आऽस्थाने । पर्वता: । अस्थु: । स्थाम्नि । वृक्कौ । अतिष्ठिपम् ॥१०१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 96; मन्त्र » 1
विषय - अपने स्थान पर
पदार्थ -
१. (गावः सदने असदन्) = गौएँ जैसे अपने स्थान पर बैठती हैं, (वयः) = पक्षी (वसतिं अपतत्) = अपने घोंसलों में पहुँचता है, (पर्वताः आस्थाने अस्थुः) = पर्वत अपने स्थान पर स्थित होते हैं, इसी प्रकार मैं वृक्को -[वृजी वर्जन] इन वर्जनीय काम-क्रोध को स्थानि प्रतिष्ठिपम्-इनके स्थान में स्थापित करता हूँ। [स्थामन् Fixity, stability] इनकी चञ्चलता को रोकनेवाला होता
भावार्थ -
गौएँ गोष्ट में स्थित हो ठीक लगती हैं [न कि बैठक में], पक्षी घोंसले में ही शोभित होते हैं [न कि घरों में घड़ों पर बैठे हुए], पर्वत अपने स्थान पर स्थित ही अच्छे हैं। इसी प्रकार काम-क्रोध अपने स्थान पर अचञ्चल स्थिति में ही शोभा देते हैं।
इसप्रकार काम-क्रोध की चञ्चलता को दूर करके स्थिर वृत्तिवाला 'अथर्वा' अगले तीन सुक्तों का ऋषि है।
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