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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः, विश्वे देवाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - हवि सूक्त
सं ब॒र्हिर॒क्तं ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ समिन्द्रे॑ण॒ वसु॑ना॒ सं म॒रुद्भिः॑। सं दे॒वैर्वि॒श्वदे॑वेभिर॒क्तमिन्द्रं॑ गछतु ह॒विः स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ब॒र्हि: । अ॒क्तम् । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । सम् । इन्द्रे॑ण । वसु॑ना । सम् । म॒रुत्ऽभि॑: । सम् । दे॒वै: । वि॒श्वऽदे॑वेभि: । अ॒क्तम् । इन्द्र॑म् । ग॒च्छ॒तु॒ । ह॒वि: । स्वाहा॑ ॥१०३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सं बर्हिरक्तं हविषा घृतेन समिन्द्रेण वसुना सं मरुद्भिः। सं देवैर्विश्वदेवेभिरक्तमिन्द्रं गछतु हविः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । बर्हि: । अक्तम् । हविषा । घृतेन । सम् । इन्द्रेण । वसुना । सम् । मरुत्ऽभि: । सम् । देवै: । विश्वऽदेवेभि: । अक्तम् । इन्द्रम् । गच्छतु । हवि: । स्वाहा ॥१०३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 98; मन्त्र » 1
विषय - 'हविषा घृतेन', 'इन्द्रेण वसुना मरुद्धिः '
पदार्थ -
१. (बर्हिः) = हृदयान्तरिक्ष (हविषा घृतेन) = दानपूर्वक अदन की वृत्ति से [हु दानादनयोः, घृ क्षरणदीप्त्योः ] तथा ज्ञानदीप्ति से (समक्तम्) = सम्यक् अलंकृत हो। जिस हृदय में से वासनाओं को उखाड़ दिया गया है, वह बर्हि है। इस हृदय में यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति हो तथा यह ज्ञान के प्रकाशवाला बने। यह हदयान्तरिक्ष (इन्द्रेण सं) = [अक्तम्]-जितेन्द्रियता की भावना से समक्त हो। वसुना (मरुद्धिः सम्) = निवास को उत्तम बनाने की भावना तथा प्राणों से समक्त हो। २. यह हृदय (देवैः) = देवपुरुषों द्वारा (विश्वदेवेभिः) = सब दिव्य गुणों से (समक्तम्) = सम्यक् अलकृत किया जाकर (इन्द्रं गच्छतु) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को प्राप्त हो, (हविः) [गच्छतु] = दानपूर्वक अदन की वृत्ति को प्राप्त हो। (स्वाहा) = यह उत्तम वेदवाणी है। यहाँ हवि से प्रारम्भ करके हवि पर ही समाप्ति है। वस्तुतः सर्वमुख्य बात तो हवि ही है। दानपूर्वक अदन से ही प्रभु की प्राप्ति होती है।
भावार्थ -
प्रभु-प्राप्ति के लिए हृदय को त्यागपूर्वक अदन की भावना, ज्ञानदीति, जितेन्द्रियता, शरीर में निवास को उत्तम बनाने की भावना तथा प्राण-साधना' से युक्त करना आवश्यक है। देवलोग हृदय को दिव्य गुणों से युक्त करते हुए तथा त्यागपूवर्क अदन की वृत्तिवाले बनते हुए प्रभु को प्राप्त होते है।
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