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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 97

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - यज्ञ सूक्त

    मन॑सस्पत इ॒मं नो॑ दि॒वि दे॒वेषु॑ य॒ज्ञम्। स्वाहा॑ दि॒वि स्वाहा॑ पृथि॒व्यां स्वाहा॒न्तरि॑क्षे॒ स्वाहा॒ वाते॑ धां॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन॑स: । प॒ते॒ । इ॒मम् । न॒: । दि॒वि । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञम् । स्वाहा॑ । दि॒वि । स्वाहा॑ । पृ॒थि॒व्याम् । स्वाहा॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । स्वाहा॑ । वाते॑ । धा॒म् । स्वाहा॑ ॥१०२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनसस्पत इमं नो दिवि देवेषु यज्ञम्। स्वाहा दिवि स्वाहा पृथिव्यां स्वाहान्तरिक्षे स्वाहा वाते धां स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनस: । पते । इमम् । न: । दिवि । देवेषु । यज्ञम् । स्वाहा । दिवि । स्वाहा । पृथिव्याम् । स्वाहा । अन्तरिक्षे । स्वाहा । वाते । धाम् । स्वाहा ॥१०२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. मनुष्य को कुछ धन माता-पिता से या अन्य किन्हीं बन्धुओं से प्राप्त हो जाता है, यह धन 'हुत' [दत्त] है। कुछ धन वह स्वयं अर्जित करता है, यह धन 'अहुत' [किसी और से न दिया गया] है। हम (हुतेभ्य:) = दत्त धनों से (वषट्) =  स्वाहा-यज्ञ-करें तथा (आहुतेभ्यः) = स्वयं अर्जित धनों से भी (वषट्) = स्वाहा व यज्ञ करें। देवाः देववृत्ति के पुरुष (गातुविदः) = मार्ग को जाननेवाले हैं। प्रभु कहते हैं कि हे (देवा:) = देवो! (गातुं वित्त्वा) = मार्ग को जानकर (गातुम् इत) = उस मार्ग पर ही चलो। मनुष्य अपने कर्तव्य को समझे और उसका आचरण करे। यज्ञशीलता ही हमें देव बनाती है। २. हे (मनसस्पते) = अपने मन को वश में करनेवाले जीव! (इमं न: यज्ञम्) = हमसे उपदिष्ट [प्रभूपदिष्ट] इस यज्ञ को (दिवि) = आकाश में (देवेषु) = वायु आदि देवों में (धाम्) [धाः] = धारण कर। (स्वाहा) = यह कितनी सुन्दर वाणी कही गई है। इस यज्ञ को तू (दिवि) = सारे आकाश की पवित्रता के निमित्त धारण कर। यह कथन सुन्दरतम है। इसी प्रकार इसे तू (पृथिव्याम्) = पृथिवी में अन्नादि की उत्पत्ति के निमित्त धारण कर । (स्वाहा) = यह कथन भी कितना सुन्दर है। इसे (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष के निमित्त-अन्तरिक्ष से होनेवाली वृष्टि के निमित्त धारण कर। (स्वाहा) = यह कथन सुन्दर है ! (वाते) = वायु की पवित्रता के निमित्त (स्वाहा) = तू यज्ञ कर, उत्तम हव्य पदार्थों को [धाः] धारण कर।

    भावार्थ -

    पिता आदि से प्रास तथा अपने पुरुषार्थ आदि से प्राप्त सभी धनों से हमें यज्ञ करना है। इसप्रकार यज्ञ के द्वारा पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक व वायु सब उत्तम होंगे।

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